रेत के
छोटे-छोटे
कणों सा
बनकर बिखरा हूँ,
मैं पत्थर
अपने जीवन
की दुर्दशा से
बहुत सिहरा हूँ,
पर ख़ुश भी हूँ संग मैं तेरे,
अगर रेत बना तो
मकान बनाओगे
और पत्थर को तो तुम
भगवान कहकर
मंदिर में सजाओगे
क्योंकि तुम मानव हो
तुमको टूटने बिखरने को भी
सँजोना आता है,
एक तिनके से
घर बनाना आता है,
थपेड़ों, अंधेरों, तूफ़ानों से
जीने का तुम्हारा
अपना एक सुंदर नाता है।
डॉ॰ आलोक चांटिया - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)