मुहब्बत है गाँव में - कविता - जितेन्द्र शर्मा

माना कि थोड़ी सी ग़ुरबत है गाँव में,
शर्म है, रोटी है, मुहब्बत है गाँव में।

गाय है, गोबर है, चूल्हा है खाट है,
दादा का दुलार और पापा की डाँट है।
माताजी की झिड़की दादी सहलाना,
बन्दर के, बकरी के क़िस्से सुनाना।
धोती है, कुरता है, जूती है पाँव में,
शर्म है, रोटी है, मुहब्बत है गाँव में।

दिवाली, दशहरा और होली का रंग है,
भैया है भाभी है सखियों का संग है।
गलियाँ हैं आँगन है खेत खलियान हैं,
कहीं थोड़ा ऊँचे कहीं छोटे मकान हैं।
एसी का आनन्द है बरगद की छाँव में।
शर्म है रोटी है मुहब्बत है गाँव में।

काका है काकी है, ताई और ताऊ है,
गाँव में ही कोको, लूल्लु और हाऊ है।
जात पात है पर सबका सम्मान है,
दूध है दही है, मीठा पकवान है।
कभी नाँव नदी में कभी नदी नाँव में।
शर्म है रोटी है मुहब्बत है गाँव में।

जितेंद्र शर्मा - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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