वह तुम्हीं थी - कविता - प्रवीन 'पथिक'

तुम्हारा
यूॅं मिलना;
जैसे मुरझाते पौधों की,
धमनियों में प्रेम जल का प्रवाह होना;
जिसका पल्लवन ये सुंदर पुष्प है।
तुझसे पूर्व, तुम्हारी मधुर स्मृतियाॅं,
भर देती अंतःकरण को मादकता से  
और वह स्वप्न स्पर्श,
भुलावे में डाल देता
पूर्णतः; एकांत
वह बालपन की छवियाॅं,
पुनः पुष्पित हुई हैं।
किसी झील में खिले पूर्ण कमल की भाॅंति,
जिसकी सौंदर्यता तुम हो।
जिसकी लालिमा तुम हो।
या कहूॅं कि 
कमल के रूप में तुम्हीं खिली हो।
तुम्हारे अधरों का मधुर स्पर्श,
जब मेरी साँसों से गुज़रा
तो एक नशा छाने लगा था मुझ पर।
और तुम्हारी ऑंखें बंद हो गईं थी।
वह तुम्हीं थी!
जिसका मधुर आलिंगन,
मदहोश कर दिए थे मुझे।
जिसकी महक अब तक व्याप्त है।
वह तुम्हीं थी!
जिसका प्रेम आँखों से निकलकर,
भिगो रहे थे मेरे वसन को।
औ भावविह्वल हो देखने लगा था अनंत आकाश में,
और वह प्रेम आज भी है‌।
यथावत; यथेष्ठ
जो हर रात्रि को आग़ोश में ले मुझे;
सो जाता,
अगले जन्म तक।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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