होप - कविता - कर्मवीर सिरोवा 'क्रश'

नन्हीं सी पलके, बोल रही ये भीगी आँखें,
मैं बेबस सा क्यूँ खड़ा हूँ चुप, सुनकर ये हज़ार बातें।
मैं रोज़ मिलता हूँ
और अंदर तक थर्रा जाता हूँ।
ईश्वर लगता हैं इस बार जीत जाएगा,
मुझे तोड़ना था, यक़ीनन कर्मवीर
मज़बूत हैं फिर भी टूट जाएगा।

मिन्नतें हज़ारों हुई हर शक्ति को नमन करके,
क्या लफ़्ज़ दूँ इस पीड़ा को,
जैसे कि पथरा गई मेरी आँखें,
सिसक गई मेरी साँसे।

आसमान की ओर देखती ये पथरीली नम आँखें,
शायद ऊपर कोई नहीं हैं ये सोचकर,
पहली मर्तबा बादल भी रोए
बरसना छोड़कर।

बच्चें को जैसे मैंने देखा,
भावनाओं का ज्वार समुद्र की तरह मेरी आँखों से उठ रहा था,
ये नमी पहचान गया मेरा बच्चा,
फूटकर रो दी वो नन्ही जान,
कैसे क़ाबू करूँ ख़ुद पर,
ईश्वर का ये इम्तिहान शायद किसी इंसान के लिए न था,
हो न हो मैं ईश्वर की ग़लती का शिकार था।

दो घड़ी का मिलन फिर जुदाई
कुछ इस तरह से हैं 
जैसे मूर्छित देह को संजीवनी मिली,
फिर जुदाई होने तक रह गई वहीं मेरी साँसे,
मेरे बच्चे में धड़कने के लिए।

मैं खींच लाया गया मेरे नश्वर शरीर को
बेदम पैरों के द्वारा,
एक होप ने थाम रखा हैं मेरे हाथ,
कहा, बच्चा जल्द ठीक हो जाएगा।
मुस्कुराहटों का दरबार फिर तेरे घर पर लगाया जाएगा।।

कर्मवीर सिरोवा 'क्रश' - झुंझुनू (राजस्थान)

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