गुरू तुम बहुत अनुग्रही - कविता - ईशांत त्रिपाठी

गुरू तुम बहुत अनुग्रही,
करूणा करने वाले सरिता,
वात्सल्य रूपी प्रकाशित सविता।
किस विध तव गुण कही,
गुरू तुम बहुत अनुग्रही।

लक्ष-कोटि चित् प्रश्न बैर थे,
दिवा-यामिनी नोच रहे थे।
तव चरण प्रताप आंनद भई,
गुरू तुम बहुत अनुग्रही।

आपके शब्द-मौन सुधा है,
दोनों कारण हित होता है।
हृदय तव चरण प्रीति खिली,
गुरू तुम बहुत अनुग्रही।

तव कृपा प्रकाश पाकर,
जीवन के अंतर जाकर।
ध्येय से मन का ध्यान मिलाकर,
तव स्नेह मंगल रची।
गुरू तुम बहुत अनुग्रही।

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्यप्रदेश)

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