सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)
गिलहरी - कविता - सुनील कुमार महला
मंगलवार, दिसंबर 20, 2022
उसका बीजों, फलों, तरकारियों और
कलियों को
बड़े ही शालीन तरीक़े से
अपने दोनों अग्रपादों से
कुतर-कुतर खाना
कुट-कुट की पैनी आवाज़
दिलों पर छोड़ती
मुझे बहुत अच्छा लगता है
उसका कुटकुटाना
टहनियों, पत्तियों का उसका घोंसला बनाना
सर्दी के मौसम में जब धूप खिलती है तो
वह गिलहरी
फुदकती है
भूरे, हल्के स्लेटी कोमल फर के आवरण वाली
कटे होंठ
और पीठ पर तीन सुंदर धारियों वाली
सुंदर, सलोनी
कोमल गद्देदार हथेलियाँ और तलवों वाली
झबरी सी पूँछ वाली
वह गिलहरी
देखने में अच्छी लगती है
सृष्टि की इस लघु प्राणी ने कभी
भगवान श्रीराम को
रामसेतु बनाने में योगदान दिया था
ऐसा कहते हैं लोग
चपलता लिए, चौकन्नी, मुस्तैद
कभी पेड़ तो
कभी खेत में मेढ़ पर, सड़क पर, आँगन में
लुका-छिपी का करतब दिखाती
कभी कोटर में तो
कभी बाहर की रवाईयों में
उछल कूद करती
एक डाल से दूसरी डाल
कपड़े के चिंथड़े हों या कोई कातर (छोटा कपड़ा)
सूतली हो या धागा
रूई के फाहे हों
बना लेती हैं घोंसला किसी मखमल सदृश्य
हँसती, खेलती
उसकी चिर्प-चिर्प की आवाज़ कानों में
मिश्री घोलती है
उसकी चपलता आकृष्ट करती रही है मेरा ध्यान
अखरोट, बेर संभाले
आज वह दिखती नहीं है बैठे अपने अग्रपादों पर
क्योंकि उसके जीवन की आकांक्षाओं का पेड़
आज
किसी ने अपने स्वार्थ के चलते कर दिया था ढेर
शायद अब नहीं होंगी
उसकी अठखेलियाँ
क्योंकि
अब उस गिलहरी के कुतरने के लिए नहीं बचे हैं
अखरोट, बीज, फल और तरकारियाँ
मैंने देखा
आज वह कातर निगाहों से
खोज रही थी
अपना आसियाना
मेरे जैसे किसी राहगीर की चप्पल-जूतों की थाप के बीच
अब वह छुपे तो आख़िर कहाँ छुपे?
पेड़ को ढेर करके
आज
आदमी अपना आसियाना बना रहा है और
मिटाकर
उस नन्हीं सी, प्यारी सी जान का
आसियाना
दूसरों के अस्तित्व को भुलाकर
अपना अस्तित्व कायम करना
आख़िर
इंसाफ़ तो नहीं है
कैसे बन पाएगा अब सेतु
जीव-जंतुओं और
मनुष्य के बीच?
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