आ चाँद तुझे मैं निहारा करूँ,
बीती बतियाँ मैं तुझसे साझा करूँ।
सखि देखो सँवर कर पूर्णिमा का चाँद फिर आया,
अम्बर जैसे आज धरती पर उतर आया।
अभिसार के सौंदर्य से सज्जित इक अलौकिक रूप इसका,
गंगा की लहरों में अठखेलियाँ कर रहा जैसे,
देवता भी रुक न सके, उतर आए हैं ज़मीं पर,
उनकी अगवानी में अनगिनत दीप प्रज्ज्वलित कर रहे।
कितने नज़ारे हैं फ़िज़ाओं में, धरती पर स्वर्ग उतर आया जैसे,
मुस्कुराता चाँद अपनी अदा से रिझा रहा जैसे।
आज ये चाँद मुझे भी बहुत भा रहा,
बादलों की ज़ुल्फ़ों के बीच खिलकर निखर आ रहा,
सखि देखो सँवर कर पूर्णिमा का चाँद फिर आया।
साधना साह - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)