नियति की निठुराई - कहानी - डॉ॰ वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज

कृष्णापुर स्थानीय बस अड्डे पर बिरजू दिन के क़रीब नौ बजे से ही इधर-उधर चक्कर लगा रहा था। दूर से ही किसी यात्री गाड़ी को आता देखता तो बेसब्री से उसके पहुँचने का इंतज़ार करता। गाड़ी रुकते ही लपक कर वहाँ जा पहुँचता और फिर अपने तलाश की चीज़ों को उस पर न पाकर निराश हो जाता। बिरजू तड़के सुबह ही उठकर अपने गाय-बैलों को खिलाकर दो बासी रोटियाँ ख़ुद खाकर अमरपुर से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी तय कर कृष्णापुर बस अड्डा पहुँचा था। आज उसका छोटा भाई रितेश और बड़ा भाई सोहन दोनों नौकरी पर से होली की छुट्टी में घर आने वाले थे। जैसा कि उन लोगों ने योजना बनाकर बिरजू को पहले ही बता दिया था कि हम दोनों अमुक तारीख़ को रात की ट्रेन से पटना जंक्शन पर उतर आएँगे। चूँकि देहात की बात थी, अतः बिरजू जानता था कि वे सब सुबह होकर ही बस या किसी छोटी-मोटी सवारी से कृष्णापुर उतरेंगे।
जैसे-जैसे दिन चढ़ता जाता था, बिरजू की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वह कभी अपशकुन की बातें सोचकर सिहर जाता। पर, उसकी सिहरन तब मंद पड़ जाती, जब उसे यह अहसास हो जाता कि ट्रेन देर से भी आ सकती है। बिरजू का शरीर धूल से भर गया था। वह लूँगी और गंजी पहने था। कुर्ते को उसने अपने कंधे पर रखा हुआ था। अब भूख उसे सताने लगी थी, पर अपनी जेब में रखे दस रुपयों को उठाने को तैयार न था। सोचता था– अगर वे दोनों आ जाएँगे और उनके पास खुदरा नहीं होगा, तो वह इन्हीं रुपयों से उन्हें नाश्ता करवाएगा। दिन ढलना प्रारंभ हो गया तो बिरजू की आँखों में आँसू तैरने लगे। उसने चापाकल चलाकर पानी पिया और हताश होकर एक पेड़ की ओट में बैठ गया। वह लगभग ऊँघने लगा था और फिर वह वृक्ष की ओट में ही सो गया।

“बिरजू भैया, बिरजू भैया..।” बिरजू के कानों में जब यह आवाज़ गई तो उसने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं। उठने के क्रम में उसके माथे में पेड़ की एक खूँटी गड़ गई। सिर से ख़ून की धार निकल पड़ी।  बिरजू ने देखा उसका बड़ा भाई सड़क पर खड़ा है, छोटा भाई रितेश गाड़ी से सामान उतार रहा है। बिरजू ने अपने माथे में लगे ख़ून को सावधानीपूर्वक बगल में पड़े चीथड़े से पोंछ डाला और अपने अँगोछे को अपने माथे में कसकर बाँध लिया। फिर गाड़ी की तरफ़ लपका। सबसे पहले झुककर उसने अपने बड़े भइया का चरणस्पर्श किया, तो उसके छोटे भाई रितेश ने भी उसके पाँव छूए। बिरजू ने गाड़ी से सामान उतारते रितेश से खीझकर कहा, “इतनी देर क्यों लगा दी? मैं कब से तुम सब का इंतज़ार कर रहा था। देखो तो, अब थोड़ी देर में बेर डूब जाएगा।” रितेश ने हँसकर कहा “ट्रेन अपनी नहीं न थी भइया। वह गाड़ी रद्द हो गई थी। दूसरी गाड़ी से तो आ ही गया।” रितेश जब मज़दूर खोजने लगा तो बिरजू बोला “अरे पगला, मज़दूर की क्या आवश्यकता है? मैं किस लिए आया हूँ? मेरे पास दस रुपये हैं। तुम लोगों को भूख लग गई होगी। चलो, पहले होटल में चलकर नाश्ता करो।”
सोहन को यह सब बातें अच्छी लगी थीं। रितेश की आँखों में बिरजू की इस बात से आँसू छलक आए थे। उसे अपने भाई की उदारता और निःछलता पर उसके गले लगकर रोने का जी करता था। बिरजू का पहनावा-ओढ़ावा देखकर वह अपने को काफ़ी शर्मिंदा समझ रहा था। न पैरों में चप्पल, न देह पर शुद्ध से वस्त्र। तीनों ने होटल में बैठ कर नाश्ता किया। पैसे रितेश ने चुकाए। रितेश के लाख कहने के बाद भी बिरजू ने उसकी एक न सुनी। उठाया उसने सामानों को, कुछ को माथे पर तो कुछ को गठरी  बनाकर कंधे में लटका लिया। रितेश ने भी कुछ सामान ले लिया था। चल दिए सभी अपने गाँव की ओर। आगे-आगे कुली की तरह बिरजू तथा पीछे-पीछे रितेश और सोहन।

घर पहुँचते ही घर में चहल-पहल बढ़ गई। बिरजू की पत्नी गीता ने जब बिरजू को वैसे भेष में सामान लिए और बाक़ी दोनों भाइयों को सूट-बूट में देखा तो जल-भून कर रह गई। उसे अपनी क़िस्मत पर रोना आया। साथ-ही-साथ अपने सीधे-साधे पति पर क्रोध भी। उसने क्रोध में अपने बच्चों को पीटना शुरू किया, तो रितेश ने बच्चों को अपने पैरों में लिपटा लिया। बिरजू वहाँ पहुँचकर अपनी पत्नी पर हवा में हाथ लहराते बोला, “हट तो रे रितेश, आज इसका हम भूत झाड़ देते हैं। जलंती को तुम सबको देखकर जलना आया है।” क्रोध पीकर चली गई गीता अपने कमरे में। ख़ूब रोई पलंग पर लेट कर।

होली के दिन सुबह से ही सभी घरों में चहल-पहल थी। बिरजू के यहाँ भी सुबह बड़ी-बजके बने। खाकर रितेश अपने साथियों के साथ गाँव में कादो-मिट्टी खेलने चला गया। दोपहर को सभी ने नहा-धोकर नए-नए कपड़े पहने। सोहन और रितेश दोनों मिलकर परिवार के सभी सदस्यों के लिए कपड़े लाए थे। नौकर हरिया ने छुट्टी ले रखी थी। उसने कल रात को ही अपने मालिक की तरफ़ से मिलने वाले कपड़े ले लिए थे। बिरजू जानवरों को खिलाने में लगा था। उस वक्त रितेश ने बिरजू से कहा था कि आप नहाइए- धोइए, मैं जानवरों को खिला दूँगा। पर उस समय बिरजू ने गद्गद होकर कहा था, “पगला, भला मेरे रहते तुम सब काम करोगे। यह मुझे अच्छा लगेगा। कितने दिन के लिए आते ही हो तुम सब। बस मेहमान की तरह ही तो।” बिरजू जब दोबारा जानवरों को सानी दे रहा था। तब तक नहाया भी नहीं था। अब रितेश ज़बरदस्ती उसके हाथ से हाँड़ी छीनकर जानवरों को सानी करने लगा। बिरजू बगल में रखी बाल्टी के पानी से हाथ-पैर धोने लगा। जानवर कभी-कभी से रितेश पर हल्का-हल्का वार करते। रितेश अभी नई गंजी-लूँगी में था। लूँगी को अच्छी तरह से खोंसे था। खिलाने के क्रम में एक बैल का थूथना उसकी लूँगी में रगड़ा गया। लूँगी लेटी देख एक घूँसा मारा रितेश ने उस बैल को। पीछे हट गया बैल और लगा था बिरजू पर ताकने। रितेश नीचे उतरकर पानी से लूँगी का लेटा कोर धोने लगा। बिरजू सब देख रहा था। बोला, “मैंने मना किया था न रितेश। सब से सब काम नहीं हो सकता मुन्ना।” चढ़ गया बिरजू नाँदों की दीवार पर। जानवरों की चंचल नज़रें बिरजू को घूरने लगीं। लगता था, अब पगहा तुड़ा देंगे। रितेश खड़ा होकर देख रहा था। बिरजू जिस नाँद पर जाता, जानवर उसे पहले जी भर चाटते। पूरी देह लेट गई जानवरों के थूथनों में लगे भूसों से। बिरजू सानी करते पकड़ते बोला “देख रितेश, जानवर किस प्रकार मुझसे लगे हैं, जैसे बच्चे माँ के स्तनों को निचोड़ते रहते हैं। मारूँगा भी तो थोड़ी देर बाद फिर चाटने लगेंगे।” बिरजू सोचने लगा– कितना मज़ेदार है किसानी जीवन! कष्टकर तो है, पर प्रकृति का वास्तविक मज़ा इसी में मिलता है।

पश्चिम दिशा में लाल दप! दप! सूरज धरती में गिरा था। चिड़ियाँ चाँयँ-चाँयँ करती हुई तेज़ी से अपने-अपने नीड़ की तरफ़ भाग रही थीं। बच्चे अपने हाथों में रंग भरी पिचकारियाँ लिए एक-दूसरे को रँगने में व्यस्त थे। गलियाँ व उनकी दोनों ओर की कुछ दूर तक की दीवारें भी रंगों से सराबोर थीं। “बुरा न मानो होली है” की चंचल आवाज़ें हर ओर से बच्चों की आ रही थीं। महादेव स्थान पर लाउडस्पीकर बजना शुरू हो गया था। पूरे गाँव के लोग आज के दिन इसी जगह एकत्र होकर भर रात होली गाते हैं। अभी-अभी त्रिवेणी सिंह, राम एकबाल पाठक, जनार्दन शर्मा पूरे गाँव में घूम-घूम कर लोगों को मंदिर पर होली गाने की बोलाहट दे गए थे। बहुत लोग महादेव स्थान पर जुटने भी लगे थे।
बिरजू नई लूँगी-गंजी पहनकर पुआ-पूरी खा रहा था। उसकी पत्नी सुबह से जो बनाने बैठी थी, अभी तक उसे फ़ुर्सत नहीं मिली थी। खीस में तो उसने सुबह में थोड़ा भात के अलावा अभी तक कुछ नहीं खाया था। ऐसे किसी ने उसकी सुध भी कहाँ ली थी। हाँ, बिरजू ने ही एक-दो बार झुँझलाकर ही सही, मगर हृदय से पूछा था। पत्नी के मुँह लटकाए रहने पर वह भी विशेष कुछ न बोल पाया था। सोहन की पत्नी एकदम से बनी-ठनी हुई पाँवों में पायल छनकाती छमक रही थी। कीमती इत्र से पूरा दम-दम कर रहा था उसका बदन। इधर सोहन भी पाजामा-कुर्ता पहनकर रितेश द्वारा लाई गई शराब पीकर मस्त था। रितेश गाँव में निकला हुआ था। खाते-खाते बिरजू को अचानक याद आया कि उसने तो खाया है, मगर उसका साथी हरिया (नौकर) तो खाने आया नहीं। अब कब आएगा। पी-खाकर कहीं मस्त झूम रहा होगा। भइया और रितेश ने तो उसे परवी भी दी है। मगर मैंने तो नहीं। वैसे भी मेरे पास रहे, तब न। हाँ, दस रुपये तो हैं ही मेरे पास। माँगा तो था ही हरिया ने। पर, मैंने कह दिया कि आएँ हो, परिवारे-परिवार लोगे। ठिसुआ गया था बेचारा। पर, सबसे पहले उसका मुझसे ही तो उसका हँसना धर्म है। अब बिरजू के जैसे मुँह में कौर न जाते थे। पत्नी और पूरी देने लगी तो बिरजू ने थाली पर हाथ पसार दिया “नहीं गीता, पहले तुम झटपट हरिया के लिए एक थाली में पूआ-पूरी-तरकारी सरिया दो। मैं उसे दे आता हूँ। आने पर फिर खाऊँगा। सब खाएँ और परब-तीज में नौकर-चाकर ऐसे ही रहें। आख़िर सवाँग ही न होते हैं वह सब भी। घर पर लाख खाएँ, मैं क्या जानूँ।” गीता अपने हाथों की पूरियाँ सूप में फेंकती हुई झल्ला उठी, “हाँ, जाओ न मरने-उधिआने। और थोड़े कोई तुम्हारे सिवा घर में कोई फ़ाज़िल है। रार का गाँव है सिकरिया। सब खाए-पिएँ होंगे ही। जाओ कि कुल क़ाबिलियत निकाल देंगे।”
“देख गीता, बरिस-बरिस के दिन में भी खीस मत बड़ाओ। हाथ जोड़ता हूँ। खाना तू हरिया के लिए जल्द से बाँध दे। अभी गया और अभी भागा-भागा आया। इतने ही न लोगों की देह फट रही है कि बिना मतलब के भिड़ जाएँगे।” गीता क्रोध में जल-भून कर जल्द-जल्द एक थाली में खाना बाँधने लगी। बिरजू पास आकर देखने लगा “गीता, दो पूए और दो-तीन पूरियाँ और दे दे। और, थोड़ी तरकारी और एकाध निमकी-अचार भी। अब जब घर पर ही पहुँचा रहा हूँ, तो नपा-तुला क्या? दुधपुआ तो ले जाने में न बनेगा।”
चल पड़ा बिरजू सिकरिया गाँव की ओर हरिया का खाना लेकर। इस गाँव से लगभग आधा किलोमीटर पर होगा हरिया का गाँव सिकरिया। यहाँ पर हरिजन वर्ग के बहुत लोग रहते हैं। बिरजू के गाँव में मज़दूरों की कमी से यहाँ के खेतिहर सिकरिया से ही मज़दूर लाते हैं। बिरजू सिकरिया गाँव पहुँचने ही वाला था। चाँदनी रात के कारण दूर से ही वह गाँव झकझक दीख रहा था। खजानों के पानी में चाँद उतर आया था। हवा के स्पर्श से उठी उनमें की हल्की-हल्की लहरें झिलमिला रही थीं। गाँव में घुसा तो बहुत सारे लोग नशे में लड़खड़ाते दिखे। एक-दो ने नशे में ही प्रणाम भी किया। एक ने अपने साथी से कहा “देख तो फेंकना, मालिक ऐसा न हो। हरिया नहीं गया होगा आज तो पहुँचा दिए मालिक उसका खाना।” फिर बिरजू को पुकार कर बोला “ठहरिए मालिक, आप हरिया को खोज रहे हैं न। अभी-अभी दँतुला हम सबके साथ पीकर गया है। आप सीधे पीपर तर चल जाइएगा। वहीं गया है दँतुला गाँजा का दम लगाने। मैं गाँजा नहीं पीता मालिक। गाँजा तर माल खोजता है। पर यहाँ तो सब सूखा-सूखी चलता है। अच्छा मालिक, जाइए। देर हो जाएगा। एकदम निफिकिर  होकर जाइएगा। कोई साला बोलेगा, तो उसको गोली से मार कर लोंघड़ा देंगे।”
बिरजू हँसते हुए आगे बढ़ गया। हरिया के घर के पास पहुँचने ही वाला था कि दूर से ही चिल्लाता हुआ बोला हरिया “गोर लागी मालिक, प्रणाम मालिक। अरे इस समय आप इहाँ का करने आए हैं? अभी हम कहूँ जाने-ऊने वाले नहीं हैं। आज तो मौज-मस्ती का दिन है। झूठ नहीं न कहते हैं मालिक?” बिल्कुल पास आ पहुँचा था हरिया बिरजू के।
“हम तुम्हें बुलाने थोड़े आए हैं। पर यह बताओ कि तुम खाना क्यों नहीं लेने आए?”
“ऊ का कहें मालिक, असल में ज़रा एक्कर (हाथ से बोतल का इशारा कर) जोगाड़-भट्ठा में रह गए थे। ऐसे भी घर में हम्मर मेहरिया ख़ूब कच-मच बनाई है। बन-ठन के ऊ तो पूरा छमक रही है। ओए हो, आज तो मालिक…।”
यहाँ भी बिरजू ने मन में एक भरपूर हँसी ली। फिर लाया खाना देता बोला “ले, बढ़िया से इसे ले जा। गिराना-उड़ाना नहीं। पूआ-पूरी हैं। तेरी बदमाशी से न, नहीं तो क्या ज़रूरत थी मेरे आने की? तुम नहीं आए तो हमको खाना न ढूँक रहा था।”
अधखुली आँखों और डगमगाते पैरों के बीच खाना लेता बोला हरिया “अच्छा मालिक, छोड़िए यह सब। (हाथ से पीने का इशारा कर) का एकाध पाट लाएँ?”
बिरजू ने उसे डाँट दिया “तुम जानते नहीं, मैं नहीं पीता। सीधे जा अपना घर। और, यह ले (जेब से निकालकर) मेरी ओर से। पूरा दस रुपया है। पर बदमाशी मत करना। कल सुबह ही आ जाना। जानवर तुम्हीं को निकालना होगा।”
रुपये पाकर काफ़ी ख़ुश हुआ हरिया। विश्वास दिलाता बोला “एकदम से मालिक, चार बजे भोर में न पहुँच गए तब का। अच्छा मालिक प्रणाम, जाइए आप।” 
हरिया बढ़ा अपने घर की तरफ़ और बिरजू अपने गाँव की ओर मुड़ चला।

थोड़ी दूर जाने पर बिरजू ने अपने पैर में कुछ गड़े-सा महसूस किया। तंग गली होने की वजह से चाँदनी रात में भी पैर में कुछ निशान न दिखा। सोचा खर-पुआल रखे होंगे, सो उनमें का छिपा हुआ काँच वगैरह कुछ गड़ गया होगा। पर सड़क पर आने पर उसने अपने पैर से ख़ून बहता पाया। साथ ही कुछ चक्कर-सा भी। अब उसे चूहा-छछूँदर या किसी अन्य जीव-जंतु के काट लेने का शक हुआ। अब गाँव से बाहर आ गया था। यहाँ उसे बहुत अजीब-सा लगा। लगता था अब गिर जाएगा। अब दौड़ने लगा बिरजू। उसे अब किसी विषैले जीव-जंतु के काट लेने का विश्वास हुआ। पर, आते-आते अपने गाँव की एक गली में गिर पड़ा औंधे मुँह।
पीछे से तीन चार लोगों ने मंदिर पर से होली गाकर अपने घरों की ओर लौटने के लिए उसी गली की राह ली थी। यहाँ तक (जहाँ बिरजू गिरा था) आते-आते सभी रुक गए।

एक “देखो एक बेवकूफ़ इधर पीकर गिरा है, बिल्कुल टर्र है।”
दूसरा “मत पूछो भाई, होली का ये लोग न जाने कौन-सा संदेश अपनाते हैं। ग़ज़ब बना दिया आज लोगों ने होली को। अब न जाने ये शराब को पीते हैं या शराब इन्हें पीती है।”
तीसरा झुककर देखने के बाद आश्चर्यचकित होता हुआ “अरे, यह तो बिरजू है चंद्रदेव च्चा। पर, यह तो नहीं पीता।”
चंद्रदेव “वही न कहते हैं। आज न पीने वाला भी पी लेता है। पर इसे पचे कहाँ से, आदत रहती है तब न। पर क्या ज़रूरत थी।”
“कितना अच्छा लड़का है। नेक है, अदबी है, लोकाचारी है। उठाकर देखो तो रे कमलेश।” और कमलेश ने उसे चित किया। देखा मुँह से फेन गिर रहा है।
दूसरा “ इतनी पी है कि मुँह से फेन गिर रहा है।” एक ने सशंकित होकर उसके सीने पर हाथ रखा। चिल्ला उठा “अरे, यह तो मरा हुआ है। देखो, इसकी धड़कन तक बंद है।”  सभी भर के मारे लगभग उछल पड़े। अपने-अपने तरीक़े से सभी ने की जाँच फिर किया सभी ने बिरजू को मृत घोषित। एक ने उठाया उसे अपनी पीठ पर। पीछे-पीछे शेष सभी। पहुँच गए बिरजू के दरवाज़े पर। दरवाज़ा लगा था। कई बार दस्तक दी, चिल्लाया भी। घर के बड़े सदस्य सब सुन रहे थे, पर बिरजू की पत्नी का न जाना मजबूरी था, सोहन पति-पत्नी की भी रास-रंग छोड़कर जाना एक मजबूरी। पर पत्नी इस बात पति की बाँहों का हार निकालती दरवाज़ा खोलने जाने लगी। पकड़कर फिर पहनाया हार। बोला “करोगी बदमाशी, चुपचाप सोओ। बिरजू ब (बहू) खोल देगी। बिरजू ही सिकरिया से लौटा होगा।” पत्नी “नहीं जी, कोई दूसरे-तीसरे लोग बुझाते हैं। आप सोए रहिए, अभी खोलकर आती हूँ। मँझली जाएगी दरवाज़ा खोलने।” सोहन “ नहीं अभी ब्याहता ही है। चार-चार बच्चे जन दिए और..।”
इधर आस-पहर देखकर बिरजू की पत्नी मुख्य दरवाज़ा खोलने की बजाय गोतनी का दरवाज़ा खुलवाने लगी “दीदी, देखिए न, न जाने दो-तीन लोग क्यों चिकर-चिकर के दरवाज़ा खुलवा रहे हैं।”
वेग से साड़़ी संभालती उठी गोतनी और दरवाज़े तक आती-आती बोली “हाँ बहू, जा ही रही हूँ। (दरवाज़ा खुल गया) मँझला बौआ सिकरिया से लौटे कि नहीं?”
“अभी कहाँ लौटे हैं दीदी। उनके आस तो देख रहे हैं। छोटका बौआ भी अभी खाने नहीं आए हैं। शायद, होली ही गा रहे हैं।” जेठानी दरवाज़ा खोलने चल देती है।
गीता ने अभी थोड़ी देर पहले ही नहाया था। नई साड़ी पहनी थी शृंगार कर रखा था। एक थाली में खाने का व्यंजन रखकर दूसरी थाली से ढके हुई थी। पति खाकर छोड़ेगा तो उसी का जूठन खाएगी। लाख बोलता है, उससे क्या। आता तो है रात को मेरे ही पास। बहुत प्यार करते हैं। 
इतने में आगे-आगे छाती पीटते जगदीश की पत्नी आँगन में पहुँची। रितेश के भी रोने की आवाज़ आई। वह होली गाकर आ गया था। गीता को लगा कि रितेश को ही कुछ हो गया है। या भगवान! सब शुभ-शुभ करना। देखते-ही-देखते आँगन लोगों से भर गया। गीता भीतर में ही थी। जेठानी से देवरानी ने पूछा “दीदी क्या हुआ? सब रो क्यों रहे हैं?”
“तुम्हारी क़िस्मत जल गई बहू।”
देवरानी ने फटकार दिया “राम-राम दीदी, साल-संवत के दिन ऐसा अशुभ मत बोलिए।” 
“अशुभ क्यों बहू, पर बिरजू…।” 
“वह क्या, आप सब क्या जाने? लाख खिसिआते हैं, उससे क्या। मुझे कितना मानते हैं, आप सब क्या जानें। सारा ग़म उस समय भूल जाती हूँ। फिर कोई नखरा-वखरा किए होंगे दीदी। कहिए न उन लोगों को हटने के लिए। देखिए, कैसे मनाते हैं। उन्हीं के चलते अभी तक कुछ खाया भी नहीं है।”
तब तक तीन-चार औरतें गीता के समीप जुट गईं। सभी की आँखों में आँसू तैर रहे थे। 
“राम नाम सत्य है।” बिरजू की अर्थी को लोगों ने कंधे पर उठा लिया था। सहसा यह आवाज़ गीता के कानों तक गई तो सभी रोंगटे खड़े हो गए उसके। जेठरानी को बोली “दीदी, कौन मर गया दीदी? आप सब बोलते क्यों नहीं? रो क्यों रहे हैं आप सब?” 
नाइन ने उसके हाथों को पकड़कर चूड़ियाँ फोड़ने लगी तो झटक दिया गीता ने “अलक्षीण! अभी ही मुझे विधवा बना रही हो। अभी तक भूखी हूँ तुम्हारी जूठन खाने के लिए? तुम्हारे साथ ही होली खेलूँगी क्या?”
“राम नाम सत्य है” की लगातार ध्वनि गीता के कानों से दूर जाती सुनाई पड़ती थी। गीता अब उठकर पर्दे का ख़्याल न करते हुए स्थिति को ख़ुद समझना चाहती थी। पर औरतों ने उसे कसकर पकड़ लिया था। चिल्लाती रही, झटका मार-मार कर भागने का प्रयास करती रही; मगर उसे पकड़कर उसके हाथों की चूड़ियाँ फोड़ दी गईं। माँग का सिंदूर धो दिया गया। जवानी भी नहीं ढली कि बेवा हो गई गीता। उसके माथे से उठ गया उसके सीधे-साधे निष्कपट पति का साया। छोड़ गया उसका पति अपनी पत्नी के लिए चार अबोध संतानें। और, बहुत तो तीन हिस्से की एक हिस्सा ज़मीन। साथ ही हमारे लिए ढेर सारे प्रश्न।

डॉ॰ वीरेंद्र कुमार भारद्वाज - पटना (बिहार)

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