शरद पूर्णिमा - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

तपस्विनी के ओजस मुख सा,
अद्भुत शीतल शरद चन्द्र है।
पावस की घनघोर घटा संग,
शशि सँग आया आज इन्द्र है।
    
बरखा रानी नाच-नाच कर,
सुख दुःख दोनों बाँट रही है।
शरद ऋतु की आहट को सुन,
बिरहन दिन गिन काट रही है।

कहीं प्रतीक्षा है प्रियतम की,
कहीं प्रणय की बात हुई है।
कहीं परीक्षा है जीवन की,
कहीं कठिन शुरुआत हुई है।

अजब ग़ज़ब है खेल सुहाना,
बादल पीछे छिपा इंदु है।
ढूँढ़ रही है मुखर यामिनी,
कहाँ गया वह स्वप्न बिंदु है।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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