कुछ तो है - कविता - प्रवीन 'पथिक'

कुछ तो है!
जो ज़िंदगी के थपेड़ो के बीच,
बहाती कई ज़िंदगियाँ।
भर देती 
एक तड़प ,निराशा और अंतर्द्वंद्व का,
महासागर।
जीवन की गोधूली में,
निराशा की धुँध
फैलती,
मानस के तट पर
और स्याह कर देती,
जीवन के कई पन्नें।
कुछ तो है!
जिसकी आहट,
ख़्वाबों में भी
साँसें अवरुद्ध कर देती।
और ला खड़ा करती,
अतीत के अमिट रेखाओं के बीच।
आँखें टँगी खोजती रहती,
अपना आस्तित्व।
जिसका स्वप्न सदियों पूर्व
कभी देखा था।
कुछ तो है!
जिसकी रिक्तता,
सदैव अंतःकरण में
दो खाइयों के मध्य;
रहेगा व्याप्त।
जो मानस के तट पर,
पालथी मारे
रहेगा समाधिस्थ, अनिमेष
कुछ तो है!
जिसकी स्मृतियाँ,
वस्तुतः संयोग नही 
अपितु;
एक ऐसी अविस्मरणीय रेखा है,
जिसकी छाप हृदय पर नहीं
आत्मा पर अंकित है।
अंततः,
ख़्वाबों का मोती,
गो-खूरों के गड्ढें में;
डूब गया।
और
जीवन ग्रंथ की अंतिम पंक्ति
पूर्ण हुई।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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