प्रज्वलित कर लो दीप सत्य का - कविता - गोकुल कोठारी

कितना घना हो चाहे अँधेरा, एक दीप से डरता रहा है,
हारा नहीं जो अब तक तमस से, हर जलजले में जलता रहा है।
कहता है सूरज से आँखें मिलाकर, अगर थक गए तो मैं राह में हूँ,
चीरूँ मैं सीना असत का, ऐ! तमस मैं अभी राह में हूँ।
दिखे अगर धरा में कहीं असत अतिघोर,
प्रज्वलित कर लो दीप सत्य का, चलो सत्य की ओर।
तिमिर घेर रहा हो कहीं अगर अज्ञान का,
छिन्न भिन्न कर अज्ञान तिमिर, दीप बनो तुम ज्ञान का।
भटक रहा हो पथिक जो उजियारों की चाह में,
सीधी सी इक राह दिखा दो जुगनू बनकर राह में।
अगर निराशा आस पास तो, एक नव हुँकार भरो,
दीप बनो तब उम्मीदों का, आशा का संचार करो।
प्रतीक बना जो साहस का, जिसे जग ने स्वीकारा है,
ऐसा नन्हा दीप बनो जो नहीं अंधियारों से हारा है।
करना है संकल्प सिद्ध, ढूँढ़ो असत तिमिर का एक-एक छोर,
प्रज्वलित कर लो दीप सत्य का, चलो सत्य की ओर।

गोकुल कोठारी - पिथौरागढ़ (उत्तराखंड)

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