माना रात है अँधेरी काली,
फिर भी हुआ रौशन जग सारा।
दुल्हन बनी है ये धरती न्यारी,
चमक रहा हर घर, गली, चौबारा।
दीपों की जगमग-जगमग है,
बाज़ारों में छाई क्या रौनक़ है।
घर आँगन में बिखरी रँगोली,
हर्षोल्लास का समा है सारा।
आया ये रोशनी का त्योहार,
चौखट पर सजती बंदनवार।
धूम धड़ाका, बजता पठाखा,
दृश्य अनोखा लगता प्यारा।
मधु मिष्ठान का भोग लगाते,
आशा उमंग के दीप जलाते।
प्रेम दीपमाला से प्रकाशमय,
तिमिर विजय का पर्व हमारा।
रघुनंदन का करते गुणगान,
माँ लक्ष्मी का होता आह्वान।
पाँच दिवस का पर्व ये पावन,
मन मंदिर में करता उजियारा।
हिमांशु चतुर्वेदी 'मृदुल' - कोरबा (छत्तीसगढ़)