फूल मत फूलन बनो तुम - कविता - प्रशान्त 'अरहत'

मैं नहीं कहता कभी ये
कामिनी, कमनीय हो तुम!
या सुमुखि मानो
गुलाबों की तरह रमणीय हो तुम!

तुम वही हो जो कि
चढ़कर के हिमालय जीत लेतीं।
तुम वही हो जो कि
सागर का भी सीना चीर देतीं।
तुम वही हो जो कि
घूँघट को ही ख़ुद परचम बनातीं।

बेवजह चलते हुए भी
यूँ किसी से मत लड़ो तुम।
ग़लतियाँ भी चीज़ हैं कुछ
उनको भी समझा करो तुम।

आदमी के वेश में कुछ भेड़िये भी हैं यहाँ पर
इसलिए आगाह कर दूँ,
फूल मत; फूलन बनो तुम!

प्रशान्त 'अरहत' - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)

Join Whatsapp Channel



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos