हे तिथि अमावस दीपरात्रि! - कविता - राघवेंद्र सिंह | दीपावली पर कविता

हे तिथि अमावस दीपरात्रि!
हे माह कार्तिक कृष्ण रात्रि!
हो रहा आगमन दिव्य रूप,
हो रहा कान्तिमय नव स्वरूप।

कट रही दिशाओं की बाधा,
दीपों ने तेरा रथ साधा।
आ रही धरा पर शुभ वेला,
संग रंगोली में है बेला।

सज रही धरा साकेतपुरी,
आ जाओ बनकर स्वयं धुरी।
कर जोड़ करें तेरा वंदन,
धरती पर तेरा अभिनंदन।

तू स्वयं पुराणों में वर्णित,
तू स्वयं संस्कृति में परिणित।
तू स्वयं ज्योतिमय तिमिरहरण,
तू सदा सत्य का करे वरण।

तू स्वयं आगमन रघुनंदन,
तू स्वयं करे उनका वंदन।
तू स्वयं यहाँ है अवलि धार,
तू ही दीपों का पुष्पहार।

तू बन पुष्पों की अधिकारी,
हैं द्वार खड़े सब नर-नारी।
हैं खड़े लिए रोली-चंदन,
धरती पर तेरा अभिनंदन।

तू स्वयं सत्यता का परिचय,
तू स्वयं कांति का है संचय।
तू कृष्ण पक्ष का है तेरस,
तू धन्य-धान्य का धनतेरस।

तू स्वयं यहाँ लक्ष्मी पूजा,
तू स्वयं गणपति फल दूजा।
तू स्वयं यहाँ सुख-समृद्धि,
तू दीप ज्योति की अभिवृद्धि।

तू युगों-युगों की है वाणी,
है करे प्रतीक्षा हर प्राणी।
गति में न रख तू अब मंदन,
धरती पर तेरा अभिनंदन।

तू स्वयं कृष्ण का गोवर्धन,
तू बृजमण्डल गौरव वर्धन।
तू कला की देवी सरस्वती,
तू महालक्ष्मी महा यती।

असंख्य दीप की तू ज्योति,
तू ही तारकदल, तू मोती।
तू भाई दूज, तू अन्न कूट,
तू प्रेम भावना है अटूट।

तू आ धरती को बना स्वर्ग,
तू यहाँ रीति का महासर्ग।
है आदिकाल से ही वंदन,
धरती पर तेरा अभिनंदन।

तू स्वयं यहाँ नित नव आशा,
तू स्वयं विजय की परिभाषा।
तू दीपशिखाओं का शृंगार,
अगणित दीपों का मनुहार।

तू स्वयं वर्ण का सप्तसिंधु,
तू स्वयं प्रीति का केंद्रबिंदु।
तू स्वयं सत्यता का उत्सव,
तू यश वैभव का संचित रव।

आओ लेकर तुम स्वर्णहार,
हे दीप अवलि! है ये पुकार।
बन जा दीपों का स्पंदन,
धरती पर तेरा अभिनंदन।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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