आग़ाज़ - कविता - प्रवल राणा 'प्रवल'

आग़ाज़ हुआ दिल की आवाज की झंकार का,
मन के तारों के कंपन इक छूटे हुए संसार का।

कहीं मन की घुटन कहीं तन की तपन,
कहीं तन का व्यसन कहीं मनका स्वपन।
देखा नया रूप नया सवेरा एक नए सरोकार का,
आग़ाज़ हुआ दिल की आवाज़ की झंकार का।
कोई रोता है कोई-कोई हँसता है,
मोह माया के जाल में प्रतिपल फँसता है।
दर्शन नहीं करता मन में छिपे ओंकार का,
आग़ाज़ हुआ दिल की आवाज़ की झंकार का।

रूप बदलता है जग या इंसान नहीं बदलता,
ठोकरें खाकर भी यह नहीं संभलता।
विकलांग बनकर बढ़ाता मानबैसाखियों के कारोबार का, 
आग़ाज़ हुआ दिल की आवाज़ की झंकार का।
क्या कभी वापस मिलेगा मनमीत बिल्कुल आप सा,
राह में है लाखों काँटें दीदार होगा यार का।
प्रबल बस मिलकर रहेगा दौलत खाना यार का,
आग़ाज़ हुआ दिल की आवाज़ की झंकार का।

प्रवल राणा 'प्रवल' - ग्रेटर नोएडा (उत्तर प्रदेश)

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