दशानन दहन - कविता - आर॰ सी॰ यादव

हे रावण!
हम जलाते हैं प्रतिवर्ष
परंतु ‌तुम जलते ही नहीं
आग की लपटो में घिरे
अट्टाहस हँसी हँसते हो 
मानो कुछ कहना चाहते हो समाज को
जो तुम्हें जलाता है सहर्ष 
और तुम आ जाते हो प्रतिवर्ष।

शायद तुम कहना चाहते हो
क्यों जलाते हो मुझे?
क्यों न जलाते हो
अपनी लिप्सा पिपासा?
क्यों न नष्ट कर देते हो
अपने घमंड अंहकार को?
क्यों न तिलांजलि देते हो
अपनी लोभी प्रवृत्ति को?
क्यों न जलाते हो
अपने‌ कामुक विचारों को‌?

शायद यही शास्वत सत्य है 
क्या मिलता है हमें
रावण को जलाकर प्रतिवर्ष
समाज में छिपे हुए भेड़ियों का
कब होगा अंत?
कब होंगी सुरक्षित 
बहन-बेटियाँ समाज की 
कब जलेंगे स्वार्थी लोभी
दानव समाज के।

आओ जलाएँ ‌इस बार
बुराइयाँ समाज की
वध करें इस बार
स्वार्थ, लालच और अंहकार की
मिटा दें दूरियाँ मन से मन की 
फिर से कायम करें
रामराज श्रीराम की।

आर॰ सी॰ यादव - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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