दो लफ़्ज़ प्रेम के,
कोई समझ न पाए।
पत्थर को भी पिघला दे,
प्रेम की ऐसी वाणी हैं।
एक राँझा सा एक हीर सी,
दोनों प्रेम की निशानी हैं।
कोशिश तो बहुतों ने की,
प्रेम को मिटाने की।
लैला को तरपाने की,
मजनू को सताने की।
मिट न सका प्रेम इनसे,
तो दिवारों में चुनवा दिया।
क्या प्रेमी वो दीवाने थे,
जो इसको भी स्वीकार किया।
ये तो सिर्फ़ इन्सान थे,
यहाँ ईश्वर भी हारे बैठे हैं।
प्रेम से आज भी लोग इन्हें,
राधा-कृष्ण बुलाते हैं।
वक्त बदला, सदिया बदली,
प्रेम बदल न पाए।
दो लफ़्ज़ प्रेम के,
कोई समझ न पाए।
विशाल पटेल - समस्तीपुर (बिहार)