हिंदी राजभाषा का उन्नयन और प्रसार - लेख - सुनीता भट्ट पैन्यूली

“जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता।”
– डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद

14 सितंबर यानि हिंदी राजभाषा दिवस।
हिंदी भाषा विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राज्य भाषा भी है भारत की स्वतंत्रता के बाद १४ सितंबर १९४९ को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिंदी की खड़ी बोली ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्त्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु राष्ट्र भाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् १९५३ से संपूर्ण भारत में १४ सितंबर को प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।

दरअसल भाषा  की संस्कृति कोई बद्धमूल विषय नहीं, कालांतर यह गतिमान होती रहनी चाहिए हमारी व्यवहारिकता हमारी बोली हमारे रहन-सहन में।
संस्कृति तो यही कहती है जो हमने ग्रहण किया है उसे सतत रूप से प्रभावशील, सहेजा और संरक्षित किया जाए।

भाषाओं का अपना इतिहास रहा है किंतु इनके निर्माण का आधार मानव उत्पत्ति नहीं वरन भाषाओं की उत्पत्ति मानव का इतिहास है। 
भाषा विज्ञान हमारी संस्कृतियों का अभिन्न हिस्सा है जिसे विभिन्न वैश्विक समुदायों ने अपने निरंतर व अथक प्रयासों से अभी तक ज़िंदा रखा है।
विडंबना किंतु यह है कि अपनी भाषा को धता बताकर हम पाश्चत्य रंग में रंगे चले जा रहे हैं।

दूसरी भाषाओं का वरण कदाचित ग़लत नहीं, किंतु क्या ऐसा नहीं हो सकता? हिंदी भाषा हमारी व्यवहारिकता, क्रियाकलापों के सर्वोच्च शिखर पर हो और अन्य भाषाएँ उसके दाँए-बाँए विराजमान हों ताकि समान अवसर उपलब्ध हों निर्धन और धनी के चारित्रिक, सामाजिक और राष्ट्रीय विकास हेतु।

हिंदी भाषा के विकास हेतु वृहत्तर स्तर पर इसकी क्षमता का विकास करना भी अत्यंत आवश्यक है।
राष्ट्र के विकास की गति का मुल्यांकन करके देखा जाए तो  भाषा किसी देश के विकास, शांति, सुख, समृद्धि, वहाँ के नागरिकों की ख़ुशहाली, सहज्ञ वैयक्तिक अंतर्संबंध, सशक्त सामाजिक व्यवस्था, इत्यादि के निर्माण में प्रभावी भूमिका निभाती है।

भारत के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध से उबरे चीन और जापान के विकास और वहाँ के नागरिकों के जीवन स्तर, वहाँ सत्यता और समाज की कार्य निष्पादन क्षमता, राष्ट्रीय विकास में व्यक्ति के योगदान और लगाव इत्यादि की ओर सरसरी निगाह डाली जाए तो भारत से अलग इनमें कोई चीज़ है तो वह केवल इतना ही कि उन्होंने बोलना, लिखना, पढ़ना, संवाद करना, समाज का संचालन करना और सरकारों का बनना-बिगड़ना ये सबकुछ अपनी भाषा में किया विज्ञान की भाषा के रूप में, तकनीक की भाषा के रूप में, न्याय की भाषा के रूप में, बाज़ार और व्यापार की भाषा के रूप में अपनी भाषा को स्वीकृति दी। ऐसा ही 1949 में उदित राष्ट्र इसरायल ने किया। हिब्रू जैसी लुप्त हो गई भाषा जिसे बमुश्किल कुछ दर्जन लोग जान सकते थे, पढ़ सकते थे, व्यवहार कर सकते थे उस भाषा को भी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति देकर उन्होंने दुनिया में एक चमत्कार किया है।

व्यक्तिगत विकास और स्वंय के परिप्रेक्ष्य में कहूँ तो चाहे कितनी प्रेम कविताएँ अंग्रेजी में पढ़ लें, लिख लें या सुन लें किंतु जो संबधता और आत्मीयता खांटी हिंदी भाषा से स्थापित होती है वह किसी अन्य भाषा द्वारा नहीं।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की कुछ पंक्तियाँ इस संबंध में इस प्रकार हैं:
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नतिको मूल।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल॥”

निज भाषा में व्यवहार करना, मातृभाषा में पढ़ना, बोलना, समझना, जानना, बताना और समझाना, यह व्यवहार जिस समाज में होता है, वह समाज उन्नति को प्राप्त करता है और सभी प्रकार की उन्नति, सभी प्रकार के विकास, सभी प्रकार की समृद्धि का मूल यही है।

हिंदी महज़ भाषा ही नहीं हमारा व्यक्तित्व, हमारे विचारों की सहज अभिव्यक्ति हमारा सुख, हमारा दुख, हमारा उत्सव, हमारी निराशा, हमारी जिज्ञासा, हमारा भोजन, हमारी भावनाएँ, हमारी संवेदनाओं को एक हृदय से दूसरे हृदय तक पहुँचने की संवाहक है अथार्त हमारी आत्मा का उत्सर्ग है हिंदी भाषा, बनिस्बत उपरोक्त इस ब्यौरे के, हिंदी दिवस को किसी एक निश्चित दिन मनाने की हमें क्यों आवश्यकता आन पड़ी है? यद्यपि कोई एक दिन सुनिश्चित हुआ है तो हम सभी को इसके व्यापक प्रसार के लिए अपने-अपने स्तर पर हिंदी भाषा की व्यापकता में सोचने की आवश्यकता है।

हिंदी भाषा हम भारतीयों के जीवन के सफ़र के साथ सतत चलने वाली हमारी संगिनी है जिसका हाथ पकड़ कर हमें उसके उत्कर्ष हेतु लंबा सफ़र तय करना है।
हिंदी भाषा के उत्थान के लिए उसे सिर्फ़ बोली के रूप में ही प्रयुक्त करना ही हम भारतीयों का उत्तरदायित्व नहीं है हमें उसकी समृद्ध संस्कृति में भी अपने प्रयासों से इज़ाफ़ा करना चाहिए।

हिंदी भाषा विराट शब्दकोशों का व्यापक भंडार है किंतु आमजन भाषा में उसका प्रयोग नगण्य है क्यों न विलुप्त होते शब्दों को अपने लेखन और आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त कर अपनी मूल जड़ों को खोती हुई हिंदी भाषा की समृद्ध संस्कृति, विविधता और सार्वभौमिक विचारों को संकरित किया जाए?

हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए क्षेत्रीय भाषाओं को भी बढ़ावा देना चाहिए जिसमें प्रयुक्त शब्दों की प्रचुरता भी हिंदी भाषा के शब्दकोष को और संभ्रांत और विस्तृत कर सकती है।
बच्चों और युवाओं के व्यक्तित्व के विकास के लिए बुनियादी स्तर पर हिंदी व्याकरण और उच्चारण में सुधार पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

हिंदी चूंकि हमारी आत्मा है अत: हमारे जीवन-यापन हमारे कार्य-क्षेत्र  (रोज़गार, व्यवसाय में) तकनीकी और विज्ञान में हिंदी का समावेश होना चाहिए ताकि हमारी निर्भरता बाह्य उपभोग में न होकर हम उपभोग कराने में सक्षम हों।
हिन्दी भाषा यानी हमारी राज-भाषा एक सशक्त माध्यम है अपनी जड़ों, अपनी सभ्यता, अपनी धरोहर, अपनी मान्यताओं, मौलिकता, दैनिक-मूल्यों से जुड़ने का।

अपनी मातृ-भाषा से प्रेम करना ही हमारा कर्त्तव्य नहीं है, देश और समाज से भी प्रेम करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए और देश के उन्नयन के लिए हम हिंदी भाषा को संपन्नता के किस स्तर पर ले जा सकते हैं? यह हम सभी भारतीयों का मूल दायित्व होना चाहिए।
सूचना एवं संचार युग में आत्मनिर्भरता, विज्ञान और तकनीक में हिंदी भाषा का प्रसार और उसकी व्यापकता, बच्चों की बुनियादी स्तर पर हिंदी भाषा की गुणवत्ता ही हम भारतीयों को उन्नति के एक दूसरे ही शिख़र पर पहुँचा सकती है।

हिन्दी भाषा के विदेशों में प्रचार-प्रसार का श्रेय हमारे गिरमिटिया मज़दूरों को जाता है शायद यही कारण है कि फिजी, मारीशस, गुयाना, सूरीनाम जैसे दूसरे देशों की अधिकतर जनता हिंदी बोलती है।

सौभाग्यशाली हैं हम कि ऐसी संस्कृति ऐसी सभ्यता, विभिन्न रंगो से सुवासित मिट्टी में साँस ले रहे हैं हम जिसकी उद्दात परंपराओं, मान्यताओं, पुराणों, महाकाव्यों, वेदों, साहित्यिक पुरोधाओं, स्वतन्त्रता सैनानियों, शहीदों के योगदान और एतिहासिक गाथाओं को अगर हम नहीं जान पाए तो हमने अपनी संस्कृति उसके निहितार्थ और उससे उपजी अपनी अतल हिंदी भाषा की उपयोगिता नहीं समझ पाए हैं।

हिंदी हमारी भावनाओं में, हमारी संवेदनाओं, हमारे स्वप्नों, हमारी दिनचर्या, हमारी सोच, हमारी आत्मा में होनी चाहिए तभी हम हिंदी भाषी होने का एकजुट होकर दंभ भर सकते हैं।

मात्र स्मरण नहीं अपितु हिंदी भाषा के संवर्धन का अर्थ है:
राष्ट्रीय प्रेम का विकास।
आत्मबल का विकास।
व्यक्तित्व का विकास।
भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विकास।
हिन्दी साहित्य का संचरण ।
भारतीय इतिहास और स्वतंत्राप्राप्ति के लिए संघर्षरत, स्वतंत्रता सैनानी और शहीदों के जीवन मुल्यों से अवगत होना।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीयता की पहचान।

सुनीता भट्ट पैन्यूली - देहरादून (उत्तराखंड)

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