सोच का अस्तित्व - कविता - सुनीता भट्ट पैन्यूली

सोच का कोई तो अस्तित्व होगा न?

डूबते सूरज की वृहद लालिमा में
कुछ रेखाएँ खींची ज्यामितीय
कुछ ख़ास समझ नहीं आया सोच का ताना-बाना

ईश्वर से ही पूछ लिया आख़िर
सोच की गति को मापने का
कोई इंची टेप है क्या
ईश्वर तुम्हारे पास
है क्या?
यदि नहीं तो
व्यापक दृष्टिकोण दे दो उन्हें
ताकि उनकी सोच का कद मेरी सोच से बड़ा हो जाए

क्योंकि ये सोच के घोड़े भी न
डुबते सूरज की तरफ़ पश्चिम की ओर
बहुत कुलाँचे भरते हैं

आज ही रेत के तट पर
ख़ून से लथपथ
डूबते लाल सूरज के गोले में मैंने
रिश्तों को मटियामेट होते देखा
विश्वास भी गिरा हुआ हाँफ रहा था बाईं तरफ़।

सुनीता भट्ट पैन्यूली - देहरादून (उत्तराखंड)

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