सोचता हूँ - कविता - प्रवीन 'पथिक'

सोचता हूँ,
कुछ लिख लूँ।
लिखना,
दर्द को कुरेदता है; या
हृदय को झकझोरता है।
दोनो स्तिथियों में,
आहत होता हृदय ही।
जिसने प्रश्रय दिया था इन्हें।
सोचता हूँ,
सोचना छोड़ दूँ।
भूत का भविष्य
इन बोझों को लाद दूँ;
प्रारब्ध के कंधों पर।
और मूक देखता रहूँ,
काल के चक्र को।
सोचता हूँ,
उस दिवास्वप्न को भूल जाऊँ।
जिसे जाड़ों की रातों में 
ओढ़ के सोता था
या गर्मी के चाँदनी रातों में,
बिछा देता था।
सोचता हूँ,
उस आशा को छोड़ दूँ।
जो मानस में,
पानी के बुलबुले-सा बनते बिगड़ते हैं।
जिसे पाने की लालसा,
मेरा चैन छीन लेती;
और धकेल देती,
अंधेरे अतीत के गर्त में,
कई शताब्दियों तक ।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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