संस्कार - कविता - अपराजितापरम

आज रो रही हो क्यों तुम?
सहनशीलता और मर्यादा का पाठ तो तुमने मुझे पढ़ाया था। 
बचपन में जब भाई ने मुझको धक्का मारा था,
तुमने उसे पुचकार कर मुझ रोती को,
ग़ुस्से से, उसको पानी देने के लिए पुकारा था। 

मेरे ज़ख़्मों पर अब क्यों रोती है?
सहना तो तूने ही सिखाया था। 
अपमानित जब तू होती थी, पिटती थी और रोती थी,
मैं दरवाज़े की ओट में खड़ी सिहरन से भर जाती थी।  

ये ज़ख़्म तो फिर भर जाएँगे,
पर क्या मेरा अस्तित्व लौटा पाएँगे?
दोषियों को सज़ा भी हो जाएगी। 
पर उस दीमक भरी सोच का क्या,
वह समाज से कब बाहर जाएगी?

तेरी परवरिश की देख, मैंने क्या क़ीमत चुकाई है?
इनकार किया तो जला दी गई, हैवानियत की मोहर लगाई है। 
बेटों की इस हरकत पर अब क्यों अपमानित होती है?
पहले सोच नहीं बदली, अब मुँह छिपाकर रोती है। 

औरत केवल शिकार नहीं, यह अहसास तुझे ही कराना होगा,
अपने संस्कारों के साथ अपनी परवरिश को भी मज़बूत बनाना होगा। 

अपराजितापरम - हैदराबाद (तेलंगाना)

साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos