मैं सूरज हूँ - कविता - राकेश कुशवाहा राही

मैं क्षितिज का डूबता सूरज हूँ,
मैं क्षितिज का उगता सूरज हूँ।
मैं डूब अँधेरी गुहाओं में कहीं,
तारों को महत्ता देता रहता हूँ।

चाँद सूरज से ही आलोकित है,
पर दिन में वह कुछ विचलित है।
जब छिन जाती चाँदनी उसकी,
तब जग कहता रात अमावस है।

अवसान के बाद ही अवतरण है,
मैं ढलता हूँ तभी मेरा अभ्युदय है।
ध्यान रहे जगत को यह प्रतिक्षण,
मैं जलता हूँ पर मुझसे जीवन है।

राकेश कुशवाहा राही - ग़ाज़ीपुर (उत्तर प्रदेश)

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