बीच ही सफ़र पाँव रोक ना मुसाफ़िर - गीत - श्याम सुन्दर अग्रवाल

बीच ही सफ़र पाँव रोक ना मुसाफ़िर,
आगे है सुहानी तेरी राह रे।
कहने को जड़ है, ना चले रे हिमालय,
बहने को नदिया में गले रे हिमालय,
अरे, जड़ के पिघलने का नाम ही है चलना तो,
कैसी तेरी उलझन, कैसा तेरा भारी मन,
कैसी ये थकन कैसी आह रे।
बीच ही सफ़र...

उथले में आँसुओं से खारे हैं रे सागर,
गहरे में मोतियों को धारे हैं रे सागर,
अरे गहरे पानी पैठने का नाम ही है चलना तो,
तैरे है क्यों उथले तू, गहरे की भी सुध ले तू,
पाना है तुझे तो अभी थाह रे।
बीच ही सफ़र...

चाँद को बसेरा देने ढले है रे सूरज,
जग को सबेरा देने जले है रे सूरज,
अरे, ढलने औ' जलने का नाम ही है चलना तो,
कैसे रे पराया कोई, सब में समाया वो ही,
रख ना किसी से कोई डाह रे।
बीच ही सफ़र...

फूल और शूल का ही मेल है रे बगिया,
धूल में ही खिलने का खेल है रे बगिया,
अरे, बिंधके भी खिलने का नाम ही है चलना तो,
तू भी रख ऐसा पग, कह उठे सारा जग,
वाह रे मुसाफ़िर! वाह रे!!
बीच ही सफ़र...

श्याम सुन्दर अग्रवाल - जबलपुर (मध्यप्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos