हिंदी पहचान हमारी है - कविता - ईशांत त्रिपाठी

देखो माँ सोचो तो...
कल दावत का आयोजन है,
फिर मित्रों का ही निर्देशन है।
कुछ सुन्दर सा, कुछ प्यारा सा,
पर अनोखा बनकर आना है।
सजीव हो या निर्जीव कोई,
अपना एक किरदार बनाना है।
अपने किरदार से निभता,
कुछ सुंदर बात सुनाना है।
मीना बन गई है बादल,
पेड़ बना ख़ुश पप्पू पागल।
श्वेता रीना मोनू टिल्लू, 
कोई नदी तो बना कोई उल्लू।
मैं बेचारी सोच में डूबी...
सोचूँ कल भूत बनूँ या फिर बिल्ली।
इतने में कहती हैं मैया...
आरि मेरी सोनचिरैया।
कितनी सुन्दर कितनी प्यारी,
सहज सरल बहुकांति वाली।
एक रूप में नव रस बहता,
मुस्कित मुखड़ा घर का गहना।
तेरी स्पष्ट शक्कर बोली,
करती है उर-मन की चोरी।
तू तो बिल्कुल हिंदी जैसी,
फिर माथे‌ क्यों चिंता चढ़ती?
बन जा लाड़ली तू हिन्दी...
सब तुम्हें सराहेंगे।
आएगा मजा दावत में...
सब तेरे गुण ही गाएँगे।

ओहो माँ! तुम तो मेरे मन की महारानी हो...
जैसा बोली हो मुझको मैं वैसा ही करने वाली हूँ।
श्रेष्ठ असीम लचीली स्पष्ट भेदहीन पावन न्यारी है,
संस्कृत की बिटिया प्यारी हिन्दी पहचान हमारी है।

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्यप्रदेश)

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