आपस के मतभेद मिटाती,
भारत की नव आशा हिन्दी।
पूर्व से पश्चिम मिलवाती,
मेरी प्यारी भाषा हिन्दी।
उत्तर से दक्षिण को जाती,
मन में सुंदर भाव जगाती।
भारत को एक सूत पिरोकर,
अपनेपन की आस जगाती।
हर बोली से मेल बढ़ाती,
जन-जन की है भाषा हिन्दी।
धीरे से आकार बढ़ाती,
जनमानस की आशा हिन्दी।
हम सबको पहचान दिलाती,
भारत का गौरव है हिन्दी।
जग में अपना मान बढ़ाती,
भाषा का सौरभ है हिन्दी।
जन-जन को आपस में जोड़े,
पर मिलता वह सम्मान नहीं।
सौत विदेशी सबको प्यारी,
क्यों हिन्दी का गुणगान नहीं?
भारत के मस्तक की शोभा,
हम मिलकर सब सम्मान करें।
भारत की पहचान यही है,
क्यों इससे हम अंजान रहें?
गणेश भारद्वाज - कठुआ (जम्मू व कश्मीर)