हिंदी हैं हम - कविता - रतन कुमार अगरवाला

हिंदी हैं हम, करते हैं हिंदी भाषा में भावों की अभिव्यक्ति,
हिंदी में करते हैं बातें, करते हैं देवी देवताओं की भक्ति।
हिंदी संग जन्म हुआ, हिंदी संग ही बीत गया यह बचपन,
हिंदी भाषा ही मातृ भाषा, हिंदी संग हुई आयु भी छप्पन।

हिंदी ही वह भाषा है, जिसमें पहली बार पुकारा था माँ को,
हिंदी में ही गाते हैं “जन गण मन”, देते सलामी झंडे को।
बचपन बीता, जवानी बीती, बुढ़ापे की दहलीज़ पर रखे कदम,
हिंदी से ही दमकता, विश्व में हिन्द की बोली का परचम।

हिंदी हैं हम, हिंदी में ही पढ़ा यौवन में पाठ प्रीत का,
खेलते कूदते बड़े हुए हम, हिंदी में चखा स्वाद जीत का।
ज़िन्दगी का पहला शब्द “माँ” भी कहा हमने हिंदी में,
बड़ा अपना अपना सा लगता है, जब बोलता हूँ हिंदी में।

“जय श्रीराम” कहूँ या “जय श्रीकृष्ण”, कहता हूँ हिंदी में,
ढोल बजाऊँ, या पखावज बजाऊँ, धुन निकलती हिंदी में।
दिन में हिंदी, रात्रि में हिंदी, सपने भी बुनता मैं हिंदी में,
वंदे मातरम में भी हिंदी, राष्ट्र गान भी गाऊँ हिंदी में।

हिंदी में ही लिखता मैं, सहज सरल सब मन के भाव,
हिंदी में ही बाहर निकलते, अंतर्मन में लगे सारे घाव।
जन-जन की आवाज़ है हिंदी, कविताओं की रसधार हिंदी,
हिंदी हमारी रग-रग में है, माथे की बिंदी है यह हिंदी।

सभी भाषाओं को करे समाहित, ऐसा ही है यह समाहार,
साहित्य को मिलती समृद्धि, जब मिलता हिंदी का आहार।
माथे का अभिमान है हिंदी, हमें हिंदी से है बहुत ही प्यार,
हिंदी है साहित्य की धुरी, हिंदी ही है साहित्य की रसधार।

पिरोकर हिंदी के मोतियों की माला, हिंदी भाषा को अपनाएँगे,
हिंदी को उच्च स्थान दिलाएँगे, विश्व को हिंदी से नहलाएँगे।
गूँजेंगे स्वर इसके ब्रह्मांड में, गूँजेगा इससे पूरा आसमान,
हिंदी भाषा से होगा अलंकृत, विश्व साहित्य का संपूर्ण जहान।

रतन कुमार अगरवाला - गुवाहाटी (असम)

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