बादल की रोशनी में
अँधेरे का ख़्वाब जगमगा रहा है।
पीतल के ग्लास में
सोने का पानी भरा जा रहा है।
कोहरे की आवाज़ से
नई भाषा का उदय हो रहा है।
नई भाषा
जो जनसमूह का हिस्सा है।
उपमा संकेतों से,
रूपक, मौन प्रतीकों से,
धूल धक्कड़ खाती हुई
अधूरा रह जानें की व्यथा से चिंतित है।
धीमी आँच में
चाय बनाते हुए
सर्दी का कहना मानता मन।
ना तो सही से जल ही रहा है
ना ही बुझ रहा है।
थका हुआ मन जो अँधेरे में पड़ा हुआ है।
अँधेरा दूर करने की योजना में
तकीये के भीतर से निकालता
जुगनुओं का फोहा।
परत-दर-परत
अँधेरा अपनी ही रोशनी से भाग रहा है
मनुष्य जो जन्म से भूखा है।
माथे पर उसके भूख की लकीरें है।
जम्हाई लेता हुआ पानी का ग्लास
आँख मूंदकर सो जाता है।
सूरज जो पानी का अथाह भंडार है।
जिसके चलते रोशनी शून्य हो जाती है
और साँसे मद्धम।
इमरान खान - नत्थू पूरा (दिल्ली)