यूँ तो, सब दिखता है,
मगर, कुछ नज़र नहीं आता।
इन चर्चाओं के बाज़ार में,
बनावटी चकाचौंध की जिरहों में
हर शख़्स सम्मोहित हुआ जाता है।
यूँ तो सब दिखता है... मगर, कुछ नज़र नहीं आता।
झूठ, सच में और सच, झूठ में बदल जाता है।
भ्रम की चादर ओढ़ा, भूखा, भविष्य को खा जाता है।
यूँ तो, सब दिखता है... मगर, कुछ नज़र नहीं आता।
बिकता ज़मीर, शिक्षा का व्यापार,
गुणवत्ता से समझौता,
योग्यता का ये पैमाना,
देखकर भी, क्यों मन नहीं घबराता?
सृजनात्मकता के अभाव में, धुँधलाता भविष्य,
शायद, दिखता तो है,
मगर, अफ़सोस, नज़र नहीं आता।
अपराजितापरम - हैदराबाद (तेलंगाना)