लगता है वो गुमसुम-गुमसुम
उसे कभी न चहकते देखा
न डाल-डाल फुदकते देखा
हरफ़ उसको लगते बेमानी
बस ढूँढ़ रहा कुछ दाना पानी
इसी उधेड़बुन में वक़्त गँवाता हरदम।
आसमाँ की उस पर बंदिशें
या ख़ुद की हदबंदी
ऊँची नहीं उड़ानें उसकी
या अनछुई कुछ पाबंदी
दिखा न सर पर माँ का साया
या ढो रही ख़ुद अपनी काया?
उसका कभी न कलरव देखा
न हँसी चिरौरी देखी
बस पनीली आँखें देखी
थरथराती कंपन देखी
सोच-सोच हैरान है हम
क्या इसका जीवन होगा
जब है ऐसा छुटपन
लिखते-लिखते कलम घिस गई
प्रश्न अब भी अनुत्तरित
यह कैसा इसका बचपन?
गोकुल कोठारी - पिथौरागढ़ (उत्तराखंड)