नज़रों का ही खेल सारा
कभी इससे मिली
उससे मिली
तस्सवुर में जो कभी आया ख़्याल उनका
मोहब्बत की पाकीज़गी इतनी
नज़र फिर मिल न सकी
किसी से न मिली
दिल का ये आलम हुआ
छलकता जाम नज़रों का रहा
फेर ली हैं नज़रें हमसे
क्या पता तुम कहीं हम कहीं
आँखों में ख़्वाब दिल में ख़्वाहिशें लेकर फिर नई उम्मीद जगी
सुनहरे सतरंगी सपनों को यथार्थ में देखने की ज़िद ठानी
बसे थे जिसमें तुम बन कर ख़ुशी
ओढ़ ली है मैंने आज वो ओढ़नी
तुम्हारी मोहब्बत में ग़ज़लें लिख डालीं
तुम्हारी सोहबत में नज़्में सँवार लीं
पहले प्यार के कितने क़िस्से
इक किताब ही बुन ली
तुमसे ही झाँझर झनकती
तुमसे ही धड़कन
पर प्यार भरी उन नज़रों का सम्मोहन न अब तक भूल सकी।
साधना साह - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)