मारकर अपने चरित्र को
जीना कहा उचित है,
जीना है चरित्र के साथ
मन उसी में हर्षित है।
बदले क्यों हम किसी के लिए
अपने आप को,
नहीं है करना ऐसा आसान
भुलाकर जीना पहचान को।
मैंने तो ये तय कर लिया है,
चरित्र अपने को धर लिया है।
जो भी अंजाम होगा देखा जाएगा,
पर, चरित्र मेरा तो साथ निभाएगा।
नही चाहता हूँ मैं इससे बाहर होना,
फिर लो मज़ा, जैसे है
इसे जीना।
क्योंकि
पहचान तुम्हारी चरित्र है,
तुम्हारे जीवन का चित्र है।
बुना है इसी में जीवन का ताना-बाना,
मिलते है हम रोज़, कभी बन कृष्ण कभी सुदामा।
ये सब हमारे चरित्र की ही देन है,
सोचते है, करते है हम वहीं,
जो ये चाहता है,
इस पर ना कोई दिन रेन है।
इसलिए
जीना है अपना ही चरित्र,
क्यों, किसलिए बदले हम अपना ये चित्र?
जितेंद्र रघुवंशी 'चाँद' - छावनी टोंक (राजस्थान)