बात छोटी है लेकिन मन को लग गई और संस्मरण बन गई।
क़रीब चौदह साल पहले हम अपने मायके कानपुर से अलीगढ़ आने के लिए रेलवे स्टेशन पर बैठ गए। ट्रेन लेट थी रेलवे स्टेशन पर गंदगी फैली थी पटरियो पर मल बिखरा था। दिमाग़ ख़राब हो रहा था। तभी एक मैला-कुचैला आदमी जिसकी दाढ़ी बढ़ी हुई और शरीर पर काम मात्र के कपड़े थे आसान शब्दों मे कहे कि एक भिखारी रेल की पटरियो पर कुछ खोज रहा था। हमारी आँखें उसका पीछा कर रही थी। मन मे विचार आया क्या ढूँढ़ रहा है यह? शायद पैसे ढूँढ़ रहा होगा।
क़रीब दस मिनट तक पटरियो पर खोज बिन करने के बाद वह नीचे झुका, हम अभी भी उसी को देख रहे थे एकटक। उसने पटरी पर पड़ी रोटी उठा ली यह देखते ही आँखों से आँसू बहने लगे और उबकाई आ गई, हमारे मुँह से निकला "उसको रोको!"
मेरा भाई जो हमारे बच्चो के साथ खेल रहा था उसने कहा, "क्या हुआ दीदी?"
हमने ऊँगली का इशारा किया पटरियो की ओर मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे।
भिखारी रोटी लेकर थोड़ी दूर निकल गया था। मेरा भाई उसे नहीं देख पाया उसने सोचा शायद पटरियो पर पड़ा मल देख लिया है इसलिए उबकाई आ रही है।
भाई बोला "दीदी उधर मत देखो, गंदगी पड़ी है इसलिए उबकाई आ रही है।"
रोटी की क़ीमत आज समझ मे आ रही थी।
संगीता राजपूत 'श्यामा' - अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)