भरोसा ख़ुद पर - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'

विश्वास का पौधा बोना चाहा,
मिट्टी जो वफ़ादार नहीं, उग न पाया
पारदर्शिता पानी से,
सिखलाती निर्मल रहे पर,
कुछ छद्म विभा के अनुकरणो से,
मन अपवित्र तो होना है।
घर का भेद, जो जाने भेदी
आस्तीन का साँप वही,
भ्रम भरा संसार लबालब
काटो का समंदर डुबोना है।
इंद्रियों को वश में करने की कला
साहस लड़कर, मान कराता है
हो तलवारे लगी जंग पड़ी तो
ख़ुद पर अभिमान फिर खोना है।
दाँतो से फट जाते लब भी
जो करे अति आत्मविश्वास यदि
परिस्थितियाँ विपरीत चाहे,
बुध्दिमता ख़ुद के विचार का पिरोना है।
हिंदुस्तानी संस्कारों का मुखरित स्वर से,
मान करना ही, बहुमूल्य सोना है
न इतरा, ख़ुद पर कर भरोसा
फिर किस बात का रोना है।

रविन्द्र दुबे 'बाबु' - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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