दुल्हन - कविता - नृपेंद्र शर्मा 'सागर'

मेहँदी भरे हाथ और किए सोलह शृंगार,
मन में उथल पुथल कि जाने कैसा होगा ससुराल।

नाज़ुक मन है, नाज़ुक तन है, और है दिल में भाव अपार,
क्या सास-ससुर दे पाएँगे, अम्मा-बाबा जैसा प्यार।।

लाल परिधानों से सजी, और लज़्ज़ातुर कपोल भी लाल,
अभी उम्र बीती ही कितनी, यही कोई साढ़े उन्नीस साल।

कहाँ फ़िक्र थी उसे किसी की, रही खेल खेलने में व्यस्त,
लेकिन आज बना कर दुल्हन, उसे बना डाला वयस्क।

नए लोग और नए नातों की, मर्यादा समझाती माँ,
आज उम्मीदों से भी बढ़कर, कुछ ज़्यादा समझाती माँ।

लेकिन मन से अभी बालपन, गया कहाँ वह सोच रही है,
अपने अंदर भी एक माँ को, आज बेचारी खोज रही है।

दुलहन बनकर अब आ पहुँची, एक नए घर आँगन में,
ज्यूँ अम्बर से बिछड़ के पानी, वह जाता है सावन में।

नज़र झुकाए तौल रही है, अपने दोनों आँगन को,
एक छोड़ दूजे में आई, जग की रीत निभाने को।

खोज रही कोई परिचित चेहरा, नए लोगो की भीड़ में,
जोड़ रही ख़ुद ही को उनसे, सम्मान की उम्मीद में।

साँझ हुई और हुआ अँधेरा, पिया मिलन की बेला आई,
भूल गई सब बातें दुल्हन, जब साजन ने गले लगाई।

सुबह पिया संग इसका नाता, जन्म-जन्म का जुड़ा हुआ,
जैसे पाकर प्यार की वर्षा, पुष्प ह्रदय का खिला हुआ।

दुल्हन बनकर अब सब नाते, निभा रही है तन मन से,
प्रेम विभल है प्रेम रंगी वह, ख़ुश है संग में साजन के।

याद मायके की आती है, लेकिन केवल यादों में,
दुल्हन अब गृहणी बनकर, व्यस्त है घर के कामों में।

नृपेंद्र शर्मा 'सागर' - मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश)

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