दिया रूपी जीवन - कविता - लक्ष्मी दुबे

थरथराता सहमा सा "दिया" रूपी जीवन अब अपने लौ के अंत को देखता है।
अँधियारा सा हर ओर व्याप्त है कुछ बुझते हुए चिराग़ों को ये बड़ी उम्मीदों से देखता है।
कोई आस नहीं कोई साथ नहीं निराशा में डूबा ये जीवन अब अपने धैर्य को खोते देखता है।
टूटती साँसें डूबती नब्ज़ अब ये जीवन रूपी दीया अपने आख़िरी क्षण को देखता है।
क्षीण होती दिए की लौ को ये एक आस से देखता है।
काँपते हुए ये "दिया" एक उम्मीद लगाए कहता है, कुछ बुझते हुए चिराग़ों से कि...
देकर कुछ अंश अपना पुनः प्रज्वलित कर दो तुम मेरे इस बुझते दिए की लौ कोः
तुम्हारे अंश को अपने भीतर समाहित कर पुनः एक बार अपने जीवन की लौ को प्रज्वलित होते देखता है।।

लक्ष्मी दुबे - मुंबई (महाराष्ट्र)

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