बहुत याद आते हैं - कविता - जयप्रकाश 'जय बाबू'

वो काग़ज़ के नाव
वो अमरा के छाँव
वो अखाड़े का दाँव 
वो जाड़े का अलाव
बहुत याद आते हैं।

वो गिल्ली औ डंडे
वो लहराते सरकंडे
वो डुगडुगी का एलान
वो पगडंडी सुनसान
बहुत याद आते हैं।

वो बच्चों की टोली
वो बारात औ डोली
वो शादी औ बड़हार
वो साली का मनुहार
बहुत याद आते हैं।

वो अम्मा की सीख
वो कजरी का गीत
वो सावन औ भादों
वो चावल और सरसों
बहुत याद आते हैं।

वो मास्टरजी का सिटकुन
वो भोली औ मुनमुन
वो आल्हा का गान
वो लक्ष्मीरानी का मान
बहुत याद आते हैं।

वो कल्लू का गदेला
वो एकन्नी औ अधेला
वो मिस्री औ चूरन
वो छत की धरन
बहुत याद आते हैं।

वो भुजे का धुआँ
वो गहिरका कुआँ
वो चौराहे की गडंत
वो बैलों की भिड़ंत
बहुत याद आते हैं।

वो गाय की ओसारी
वो सिवान औ खेतारी
वो गन्ने की मिठास
वो सनई का साग
बहुत याद आते हैं।

वो नरकट की क़लम
वो विद्या की कसम
वो खड़िया औ पिलसिम
वो क़िस्सा-ए-सिमसिम
बहुत याद आते हैं।

वो मेले की तैयारी
वो बैल वाली गाड़ी
वो भीटे का मेला
वो सखी औ सहेला
बहुत याद आते हैं।

वो पुरुआ के गान
वो बदरू पहलवान
वो पंडित औ जजमान
वो बाबा का गऊ दान
बहुत याद आते हैं।

जयप्रकाश 'जय बाबू' - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

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