मेघ - कविता - स्नेहा

बादल आते हैं
चले जाते हैं... बिन बरसे
फिर आते हैं आसमाँ पे छाते हैं
चले जाते हैं... बिन बरसे
आज निवेदन करती हूँ...
ऐ मेघ!
अबकी जो आए हो 
बिन बरसे मत जाना
बरस जाओ भूमि पर
तरस रहे पेड़ पौधे
झूम-झूम नाचने को
तरस रहा वन में बैठा मोर
झूम-झूम नाचने को
तरस रहा मेरा मन
झूम-झूम नाचने को
भीगने को
प्रेमी मन सींचने को
तरस रही मेरी आँखें
देखने को बारिश की बूँदें
फिर रिमझिम बारिश
फिर झमाझम बारिश
फिर हल्की-हल्की बारिश
और सौंधी-सौंधी ख़ुशबू सारी फ़िज़ा में फैल जाना
सारे पेड़ पौधों का हरा हो जाना
पूरे वातावरण का धूल हट जाना 
सर्वस्व हरियाली आ जाना
नदियों और तालाबों का भर जाना
ऐ मेघ!
बरस जा...
कि बारिश की बूँदें हथेली पे ले सकूँ 
कि छतरी पे बारिश की टिप-टिप सुन सकूँ
कि सौंधी ख़ुशबू से मन को भीगा सकूँ।।

स्नेहा - अहमदनगर (महाराष्ट्र)

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