अहसास - कविता - अवनीत कौर 'दीपाली'

आज फिर से अहसास हुआ 
मेरा ख़ुद में ना होने का
साँसे चल रही है,
धड़कनों की रफ़्तार तेज़ है। 
गूढ़ तन्हाई तन में, 
अपना रास्ता बना रही है
मेरा वजूद मुझे न होने का, 
अहसास करवा रहा है,
समय अपनी रफ़्तार से चल रहा हैं। पर, 
मैं पल-पल अपने न होने का, 
अहसास कर रही हूँ।
मेरा हर खोया हुआ लम्हा, 
मुझ पर ठहाका लगा रहा है। 
समय के साथ चल रहे,
हर क्षण का,
उपहास मैं सह रही हूँ। वक़्त का हर पहलू,
मुझे पूछ रहा है। 
क्या मैं थी, क्या मैं हूँ,
क्या मैं हमेशा रहूँगी। पर, 
मैं ख़ामोश चुप सी, सन्न हुई, 
सिर्फ़ मूक देख रही हूँ। 
समय के कर रहे,
उपहास का जवाब ढूँढ़ रही हूँ। 
जिन लम्हों को मैंने ज़िंदगी समझा,
उन्हीं लम्हों में,
अहसास पिरो जीती रही। 
आज मैंने अपने अहसास,
अपना वजूद खो, 
क्या पाया है? 
अपने होने और न होने की उलझन में, 
आज मैं उलझ सी गई हूँ।
अपने वजूद की तलाश करती मैं, 
होकर भी न होने का अहसास करती मैं, 
पल-पल घुटती मैं, 
क्षण-क्षण हर क्षण, 
अपने वजूद के लिए तड़पती मैं, 
अपना सब अर्पित कर,
अपने वजूद को तृप्ति, मुक्ति होने का एहसास करती मैं।

अवनीत कौर 'दीपाली' - गुवाहाटी (असम)

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