जब मैं नहीं रहूँगा - कविता - प्रवीन 'पथिक'

जब मैं नहीं रहूँगा,
रहेंगी एक अज्ञात चिंता।
जो तुम्हे सताएगी;
बिसरे पलों को याद दिलाएँगी;
पर, वो खो जायेंगे किसी गहन अँधेरे में।
यद्यपि आज मेरी बातें,
कानों को लगती हैं अप्रिय।
तथापि कल यही बातें,
रस घोलेंगी तुम्हारे कानों में;
किसी मधुर ध्वनि की तरह।
तुम्हें याद आएगा,
बरसते बादलों और झरने के मध्य,
मेरे तन का तप्त स्पर्श।
तुम्हें याद आएगा,
वह मध्य दुपहरी में नौका विहार,
और रेतीला तट।
जहाँ घंटो भर बैठना और बनाना सपनों का महल।
और भी बहुत कुछ,
जिसका ज़िक्र शायद अश्लीलता होगी।
और वो झकझोर के रख देगी,
तुम्हारे मानस को।
जो एक घोर अन्तर्द्वंद के बीच,
पिसेगा निरंतर मद्धिम चाल से।
जिसकी पीड़ा तुम्हारे अश्रु के रूप में ही,
होगी कम और कर देगी चेतना शून्य।
जहाँ मै नही रहूँगा,
रहेंगी तो बस मेरी यादें, कुछ अधूरे सपनें;
और एक खंडित प्रेम-कहानी।

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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