युद्ध - कविता - अवनीत कौर 'दीपाली'

हे भगवन, तुम दया करो
लाचार, बेबस, बेगुनाहों पर
जो बेघर हुए भटक रहें है
अंजान परदेस की राहों पर। 
खुला आसमान हिम गिराए
भूख कर रही ज़ुल्म, 
जुल्मी भी क़हर ढाए हैं
देश छोड़, जो बने परदेसी
सक्षम बन जो कमाए है
असक्षम हो, सहमे फिरते
विवश आँखो से पूछे, 
हम कहाँ अब जाए। 
हे भगवन, तुम दया करो
जो युद्ध में सघर्ष कर रहे
अपनी अपनी मातृभूमि के लिए
शहादत को गले लगाए है
कतरा-कतरा ख़ून की नदियाँ
झर-झर कर बहाए है
अनाथ बच्चे, बेआबरू होती औरते
युद्ध ने कहर के सितम ढाए हैं। 
हे भगवन, तुम दया करो
जो भटक गए है राह
ना धरे को युद्ध की धरोहर
ना हो कोई अब धरा तबाह
बहे चहुँओर शांति की लहर
युद्ध की मन में रहे न चाह
शत्रुता मन की संघार कर दो
संस्कृति, सभ्यता की फैले उत्साह।

अवनीत कौर 'दीपाली' - गुवाहाटी (असम)

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