होली - कविता - पारो शैवलिनी

आज के कबीर और फाग में 
फाग की मस्ती में धुत्त 
मेरा फागुनी मन 
कहीं बहक गया।
न जाने ये
कब और किधर गया।
उड़ी अबीर, उड़ा गुलाल 
रंग दिए चेहरे सबके 
एक रंग में 
होली का ये रंगीन त्यौहार।
मगर, ख़ुद उदास खड़ी थी
मुँह लटकाए एक कोने में 
पूछा मैंने-
"तू इतनी चुपचाप क्यों है 
तेरे चेहरे का रंग 
बदरंग क्यों है।"
जवाब में फफक उठी होली
बोली-
आज के कबीर और फाग में 
रंगोत्सव की जगह 
देखने को मिलती है 
ज़मीन पर जमे ख़ून के धब्बे 
सुनाई पड़ते हैं 
लूट-खसोट-बलात्कार के गीत
दिखाई पड़ती है 
महँगाई की लाइन में त्रस्त लोग 
फिर भी केवल 
मेरा मन रखने को
मस्ती का ताण्डव 
किए जा रहे हैं 
होली तो बेज़ार है, फिर भी 
होली में जिए जा रहे हैं।

पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)

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