तू क्या जानती है - कविता - प्रवीन 'पथिक'

तू क्या जानती है, तुझसे डर जाऊँगा मैं!
तेरे बिन, हाँ! तेरे बिन न रह पाऊँगा मैं?   
ऐसा तेरा सोचना व्यर्थ है।                   
ना ही इसका कुछ अर्थ है 
लड़ूँगा मैं हर साँस तक;
हर सुबह हर रात तक।
अफ़सोस मत करना कि मैंने तुझे प्यार नहीं दिया।
भूलूँगा मै भी नहीं, कैसे तूने मुझपर वार किया!
ऐ ज़िन्दगी! मत भूल कि मैं पहले आया था;
तूने मुझे नहीं, मैंने तुझे बुलाया था।
मैं ही फँस गया तेरे नेत्रजाल में,
प्यार चाहिए था मुझे हर हाल में।
डूबता गया तेरी गहराई में,
गिरा पहाड़ से तो कभी खाई में।
तूने ही कष्ट दिया, औरों ने ग़म नहीं;
मेरी ये अंतर्व्यथा यूँ भी कुछ कम नहीं।
हार नहीं मानूँगा, जीत की आशा में,
प्राण भले चले जाए, प्यार की परिभाषा में।
क़दम ये पीछे नहीं हटेंगे, चाहे मर जाऊँगा मैं,
तू क्या जानती है तुझसे डर जाऊँगा मैं?

प्रवीन 'पथिक' - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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