मोरनी बन कभी तेरे,
दिल के उपवन में विचरती थी,
कितना सहज मनोभाव था तेरा
मैं तब तुझसे तेरा ही पता पूछ लेती थी,
चुपके-चुपके ही सही
पर तुझसे प्रेम कर लेती थी।
कितने अनुपम
कितने प्यार भरे नैन थे तेरे
जिनमें डूब कर मैं
ख़ुद का पता भी भूल लेती थी,
आँखों ही आँखों में सही
पर तुझसे प्रेम कर लेती थी।
तेरा स्पर्श, वो तेरा आलिंगन
अद्भूत प्रेम का था परीचायक
जो सौन्दर्यीकरण मेरे
तन और मन का कर देता था।
अठखेली करते करते
सच्चे प्रेम का अनुभव
कर लेती थी,
हौले-हौले ही सही
प्रीत भरा प्रेम रस
मैं भी पी लेती थी।
अब अर्धांगिनी हूँ तेरी
तेरे हर ग़म को मै
आँखों ही आँखों में
समझ लेती हूँ,
लाख छुपा ले ग़म को
तू कितना भी
तेरी आँखों में डूबे
हर ग़म का पता ढूँढ़ लेती हूँ।।
शीतल शैलेन्द्र 'देवयानी' - इन्दौर (मध्यप्रदेश)