सुनो धनञ्जय का वियोग - कविता - राघवेंद्र सिंह

(महाभारत परिदृश्य रचना)

लिख रहा कथा मैं उस क्षण की,
है व्यथा महाभारत रण की।
जा रहे थे दिनकर अस्तांचल,
आ रही निशा वह रूप बदल

आ रहे धनञ्जय हो विजेय,
संग केशव उनके बने श्रेय।
कह रहे पार्थ होकर गंभीर,
मन विचलित मेरा है अधीर।

लग रहा शांत मैं एक प्राणी,
लड़खड़ा रही जैसे वाणी।
मिल रहे अशुभ संकेत कई,
क्या आई विपदा कोई नई।

सुन पार्थ वचन बोले केशव,
हैं कुशल ज्ञात पड़ते सब रव।
धीरज रख आगे बढ़े चलो,
न क्लांत अग्नि में आज जलो।

अंततः शिविर को आए वो,
थे जीत युद्ध को लाए वो।
किंतु था शिविर का भावशून्य,
चहुंँओर शांति का दिखा शून्य।

दुंदुभी नाद न शंखध्वनि,
है बेसुध क्लांत पड़ी अवनि।
न स्वागत न कोई है स्तुति,
लग रहा शोक की है प्रस्तुति।

है कहांँ प्राण प्यारा मेरा,
है शिविर बीच कैसा घेरा।
है शिविर बीच प्रस्थान किया,
निज भ्राताओं को ध्यान किया।

दिख रहे थे व्याकुल सभी आज,
है कहांँ रही मुख कांंति साज।
क्यों मौन सभी कुछ बोलो भी,
मुख वचनों को अब खोलो भी।

क्या रचा गया चक्रव्यूह आज,
व्यूह का भेदन क्यों बना राज।
है कहांँ प्राण प्रिय अभिमन्यु,
केवल उसे ज्ञात था भेदन व्यूह।

किंतु न व्यूह का पूर्ण ज्ञान,
था अभी सीखना उसे ज्ञान।
था बालक वह नादान अभी,
था अंश मेरा और जान अभी।

क्या बालक को भेजा रण में,
क्या बुद्धि क्षीण हुई क्षण में।
क्या तनिक दया भी आई नहीं,
क्या दिखी अभी तरुणाई नहीं।

क्या कुल का दीपक चला गया,
वैरियों के छल में छला गया।
मुझको बतलाओ शीघ्र अभी,
क्यों बैठे यहांँ हैं मौन सभी।

है कहांँ गया वह अभिमन्यु,
है किसने मारा बीच व्यूह।
वृतांत कहो ना मौन रहो,
है शत्रु उसका कौन कहो।

न सह सकता मैं यह वियोग,
कैसी विपदा मैं रहा भोग।
था पुत्र मेरा वह शूरवीर,
मन से चंचल तन से गंभीर।

जिसके सुंदर थे भौंह ललाट,
जिसका बल पौरुष सम विराट।
जिसकी निर्मल कोमल काया,
जो स्वयं सुभद्रा का जाया।

वह मधु पुष्पों का था प्याला,
प्रिय वचन बोलने था वाला।
था वीर वहांँ वह लड़ा होगा,
रण में विच्छिन्न पड़ा होगा।

क्या बीती होगी उस पल में,
असहाय वह होगा भूतल में।
स्मरण किया होगा मेरा,
कौरव ने होगा जब घेरा।

हुई कौरव सेना आह्लादित,
कर रही धूल उसे आच्छादित।
हा पुत्र! बड़ा मैं भाग्यहीन,
है तुझे काल ने लिया छीन।

ऐसे दुःख से मैं हुआ व्याप्त,
होना चाहूंँ मैं मृत्यु प्राप्त।
है काल बड़ा निर्दयी मुझपर,
न आई तनिक दया मुझपर।

ले गया प्राण मुझसे वह छीन,
हो गया मैं निर्बल और दीन।
क्या बीतेगी उस माता पर,
क्या खींचूंँ प्रश्न विधाता पर।

कैसे देखूंँ पुत्र वधू शोक,
कैसे मैं सहूँ यह मर्त्य लोक।
हे केशव! क्या अपराध मेरा,
यह वियोग रहा न साध मेरा।

निश्चय ही मैं यम लोक चला,
कैसे मैं सहूँगा वियोग भला।
सुन वचन धनञ्जय के केशव,
संभाल रहे उनके हर रव।

कह रहे हैं केशव सुनो पार्थ,
है वीरों का अंतिम यह सार्थ।
है मिली वीरगति भागनेय,
है अंतिम सत्य यह कौन्तेय।

त्याग विषाद आज लो प्रण,
है कौन पुत्र मृत्यु कारण।
जयद्रथ ने यह अन्याय किया,
जिसने समाप्त अध्याय किया।

सुनकर केशव के यह वचन,
कर लिया वज्र सम आज तन।
सूर्यास्त से पहले करूंँ मैं वध,
ले लिया प्रतिज्ञा जयद्रथ वध।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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