सफ़र - कविता - डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा'

बड़ी अजब है रीति यहाँ की
सबको बस चलते जाना है।
बिना कहे बिन बोले कुछ भी 
यह सफ़र पूर्ण हो जाना है।
साँसों की डोरी का ये बन्धन
ये संसार मुसाफ़िर खाना है।
आते हैं यहाँ कितने हर दिन 
वापस कितनों को जाना है।
भूले रहते इसको हैं सबजन 
ये तो दो दिन का ठिकाना है।
सभी सफ़र पर हैं फिर भी वे
सत्ता ही इसको मान चले हैं।
साँसों की डोरी तक है नाता
किसकी बोलो यहाँ चले है।
मानवता का ये दामन थामो
हँसते ये सफ़र कट जाना है।
आया है जग में जो भी जीव
इक दिन उसको तो जाना है।
मानों इतना बस तुम दिल से
जग एक मुसाफ़िर खाना है।

डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा' - दिल्ली

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