कैसी है पहचान तुम्हारी - कविता - राघवेंद्र सिंह

कैसी है पहचान तुम्हारी
कहाँ तुम्हारा बना निलय?
मुझे बताओ अश्व समय के
करना है मुझे तुम्हें विजय।

दाँव लगाने सामर्थ्य की तुम
चार पाँव से ही चल आते।
विविध रंग की राग रागिनी
के संग में तुम बल लाते।

है कितना पुरुषार्थ तुम्हारा
और कितना है प्रेम प्रणय?
मुझे बताओ अश्व समय के
करना है मुझे तुम्हें विजय।

हो सूक्ष्म या हो विशाल
या हो कोई पवन सरल?
या तुम कोई प्रस्तर हो
या हो कोई गरल-गरल?

चिंतन के विस्मय पथ के
क्या तुम कोई पथिक अभय?
मुझे बताओ अश्व समय के
करना है मुझे तुम्हें विजय।

हो जागृति के दिव्य पुँज तुम 
इतना तो है मुझे ज्ञात।
तेरे आने और जाने से ही
नित होते ये दिन रात।

अब अपना अस्तित्व बता दो
तुझसे मिलना तो अब तय।
मुझे बताओ अश्व समय के
करना है मुझे तुम्हें विजय।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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