रिक्शेवाला - कविता - आदेश आर्य 'बसंत'

मैं रिक्शेवाला, खड़ा टकटकी देख रहा, 
नित सड़क पर आने-जाने वालों को। 
हूँ करता सम्मान सभी का,
अपनी रोजी-रोटी कमाने को। 
कुछ देख कर मुझको सिहर जाते हैं,
नहीं देखते मेरी लोलुपता को।
मैं सिर्फ़ देखता हूँ इस कारणवश, 
कुछ हो जाए कमाई काम चलाने को।
मैं सुनता करता हूँ सबसे बातें, 
शायद हो कोई इधर-उधर जाने को।
कुछ पल सुनता हूँ गाड़ी की आवाज़ें 
कुछ पल रेलों की आवाज़ों को।
हूँ देखता हाथों में लोगों के पकड़े हुए संदूकें, 
और सिर पर लादे हुए अनाजों को।
कुछ की गठरी जो भारी है, 
कुछ लाए जो साथ में गाजे-बाजों को। 
आवाज़ लगाता हाथ हिलाता,
कभी-कभी हूँ लोगों का मुँह ताकता। 
कुछ चढ़ जाते हैं मेरे रिक्शे पर,
कुछ आगे बढ़ जाते दो आने बचाने को।
कुछ और भी आ जाते ऑटो वाले,
मेरी सवारियों को फुसलाने को।
पर कुदरत ने है लिख डाला, 
दाने-दाने पर खाने वालों को।
कुछ कष्ट सहन करते हैं पैदल आने-जाने वाले,
कुछ दर्द है होता मुझ रिक्शा चलाने वाले को।

आदेश आर्य 'बसन्त' - पीलीभीत (उत्तर प्रदेश)

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