कान्हा काहे सताएँ - कविता - अनिकेत सागर

नटखट कितना रे कितनी अदाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।

गलियों में घूमें छलिया नंदकिशोर,
माखन चुरावै गोपाल माखन चोर।
गोपियों संग नाचें जब कृष्ण मुरारी,
बजावै बंसीधर मधुर संगीत बाँसुरी।
सब की मटकियाँ क्यूँ तोड़ आएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।

मुख में समायो तोरे सारा संसार,
सृष्टि के हो तुम ही प्रभु पालनहार।
देखकर मैया यशोदा अचंभित होवै,
कैसे संभव है नंदबाबा को बोले।
पीछे-पीछे देखो कैसन है दौड़ाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।

‌तंग आकर ओखल से बांधे तोहे,
भीतर मन यशोदा का तब रोएँ।
लीलाओं से मन मन में बसा है,
प्रेम के कण-कण से तू सजा है।
प्यारी मुस्कान से क्षण में मनाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।

मैया ने कियो कान्हा को मनाई,
माखन खाने फिर भी पहुँचे कन्हैया।
देखन के अखियों में बहे तब अश्रु,
भावविभोर होवै का करें भी तो मैया।
तनिक ठहरें नंदलाला उनको क्षण में,
ज्ञात होवे वचन दियो माखन न खाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।।

आँच न आने देती तोरे ऊपर मैया,
रहें प्रेम की सदा ममता की छाया।
जो भी देखें तोहे सब को तू भाएँ,
जब भी मुरली रे बंसीधर बजाएँ।
हँसाए भी सब को कभी तो रुलाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।।

आ जाओ तोहे मैं गले से लगाऊँ,
दिल में मोरे नजरों में भी छुपाऊँ।
आस मन में तोरे प्रेम की है कन्हैया,
जैसों बहती हो प्रभाती की पुरवैया।
तेरो रूप रंग सांवरा सलोना रे भाएँ,
तोरी मैया को कान्हा काहे सताएँ।।

अनिकेत सागर - नाशिक (महाराष्ट्र)

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