तू स्वयं को रच - कविता - राघवेंद्र सिंह

नव वर्ष है एक कोरी पुस्तक,
दे रही नई कोई दस्तक।
ले क़लम हाथ रच कुछ ऐसा,
ना लिखा लकीरों में जैसा।

बन स्वयं भाग्य का निर्माता,
ख़ुद को रच ख़ुद से ही ज़्यादा।
हर पल को तू ही स्वयं सजा,
विजय का तू ही बिगुल बजा।

असंख्य रश्मियांँ हों प्रज्ज्वलित,
स्वप्नों का हार सदा हो वलित।
नित रवि लालिमा परिलक्षित,
तू स्वयं उर्मि सा हो ईक्षित।

संघर्ष लेखनी हो स्याही,
तू स्वयं का ही बन जा राही।
नित अवसर तेरे सम्मुख हों,
तू स्वयं भाग्य का ही मुख हो।

तू मेहनत से ही स्वयं को रच,
जो स्वप्न थे कल वो होंगे सच।
असफलता सफलता का आधार,
तू स्वयं स्वप्न को कर साकार।

अब कर शब्दों का स्वयं चयन,
जीवंत लगे हर्षित हों नयन।
नव वर्ष तेरा हो नया काव्य,
तू स्वयं ही बन जा महाकाव्य।

जब-जब इतिहास दोहराएगा,
तेरा ही नित वर्णन आएगा।
हर पल ही तुम्हारा नूतन हो,
जीवन में मेहनत ही धन हो।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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