शिक्षा का उद्देश्य - लेख - रेखराम साहू

प्रस्तुत विषय अपनी प्रकृति में इतना व्यापक, बहुआयामी, सूक्ष्म और जटिल है, कि इसे समझने के लिए जिस सहजता की अपेक्षा होती है, वह दुर्लभ है, और इसलिए इसे शब्दों में अभिव्यक्त करना और भी कठिन हो जाता है। फिर भी मनुष्य होने या हो सकने की संभावना के नाते इस विषय में किंचित अध्ययन, श्रवण, मनन और अनुभव के सोच से जो कुछ प्राप्त है उस पर चर्चा करने में कोई विशेष हानि नहीं है। अस्तु...
"यह शिक्षा ही तो है, जो मनुष्य को विशिष्टता देती है, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक। इस कथन के द्वारा हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य क्या है? और इसे बरता कैसे जा रहा है? इन बिंदुओं पर शिक्षा से जुड़े हुए चिंतकों का ध्यान अवश्य जाना चाहिए।"
चूँकि हमारा प्रतिपादन इस विषय का विधेयात्मक पहलू है, अतः हम इसी संदर्भ में अपना विचार रखना चाहेंगे। यदि कहीं निषेधात्मक पहलू का आभास हो, तो वह विधेयात्मक पहलू के महत्त्व के प्रतिपादनार्थ है।
सुदूर अतीत से एक सरल प्रार्थना हमारे मन-प्राण में सदैव गूँजती चली आ रही है "असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय:।" इतना सार्वभौम सत्य, इतनी सार्वभौम आकांक्षा, क्षुद्र से विराट् होने की प्यास है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है, कि शिक्षा का सत्य सार्वभौमिक और सार्वकालिक है, ज्ञान का मोती, जाति, वर्ग और सत्ता की धरोहर नहीं वरन् मनुष्य मात्र की पूँजी है। तात्पर्य यह कि ज्ञान को मुक्त होना चाहिए, क्योंकि सजीव ज्ञान या विद्या मुक्ति की अनुभूति कराते हैं, "सा विद्या या विमुक्तये"...
शिक्षा वह शक्ति है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन और जगत से जुड़े हुए, समस्त क्षेत्रों में सत्यम् शिवम् सुंदरम् को मनसा, वाचा, कर्मणा चरितार्थ करता है।
सम्यक् शिक्षा, सम्यक् दृष्टि देती है, जिसमें सम्यक् दर्शन और सम्यक् सर्जन हेतु न सिर्फ़ प्रेरणा अपितु शक्ति भी प्राप्त होती है। शिक्षा का मूल उद्देश्य तो आनंद की प्राप्ति है। अस्तित्व के हर रंग, हर रूप में आनंद का सृजन करना और न सिर्फ़ आनंदित होना प्रत्ययुत उसका निरंतर वितरण करना भी इस उद्देश्य में गर्भित हैं।

यह कहना अत्यधिक सार्थक लगता है कि जीवन का उद्देश्य क्या हो? क्योंकि जहाँ तक जीवन वहाँ तक शिक्षा, चाहे-अनचाहे अनिवार्य है। हमारे तत्वदर्शी मनीषियों ने जीवन के चार पुरुषार्थ उद्दिष्ट किए हैं- "अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। शिक्षा का उद्देश्य इन्हें नाना व्यापारों द्वारा प्राप्त करने की कला और विज्ञान को सक्षम बनाना है। यह वह बिंदु है जहाँ साध्य और साधन एकरस हो जाते हैं।

हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली, लक्ष्यभ्रष्ट प्रतीत हो रही है। हम अपनी पीढ़ियों पर महत्त्वाकांक्षा थोप रहे हैं, जिसे पाने पर अहंकार और न पाने पर हीनग्रंथियों का आविर्भाव होता है। वस्तुतः जीवन-विद्या का उद्देश्य अस्तित्व की महत्ता के साथ महत् हो जाना है और ध्यान रहे कि अस्तित्व अखंड है किंतु अपनी भ्रांत धारणा के चलते मनुष्य, जिसे दीप की तरह होना चाहिए, आज द्वीप की तरह बनकर रह गया है।

जीवन और शिक्षा के शाश्वत मूल्य अटल हैं किंतु इनकी प्राप्ति के रूपों में देश काल परिवेशगत भिन्नता और परिवर्तन अपरिहार्य है। निष्कर्ष यह कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को जड़‌ बनाना नहीं, सतत् गतिशील बनाना है। इसमें दुराग्रह या पूर्वाग्रह के लिए कतई स्थान नहीं।

शिक्षा का उद्देश्य आनंद है। मनुष्य को भौतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध बनाना है। अतः यह दोनों पक्षों के संतुलित विकास से ही सार्थक है।
अंत में उद्देश्य और प्रकारांतर से कामना के कुछ संकेत -
"आत्मवत् सर्वभूतेषु, वसुधैव कुटुंबकम् 
सर्वे भवंतु सुखिनः, रसो वै स:"

रेखराम साहू - बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

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